बेटियों के मामले में ‘लापरवाह’ क्यों हैं हम

Edited By ,Updated: 27 Jun, 2020 03:31 AM

why are we careless in the case of daughters

हाल ही में कानपुर के राजकीय बाल संरक्षण गृह में 57 लड़कियां कोरोना संक्रमित पाई गई हैं। इसके अलावा, संक्रमितों में पांच और संक्रमण से बची हुई दो लड़कियों की जांच में उनके गर्भवती तथा एक अन्य के एच.आई.वी. से संक्रमित होने का पता चला। हालांंकि कानपुर...

हाल ही में कानपुर के राजकीय बाल संरक्षण गृह में 57 लड़कियां कोरोना संक्रमित पाई गई हैं। इसके अलावा, संक्रमितों में पांच और संक्रमण से बची हुई दो लड़कियों की जांच में उनके गर्भवती तथा एक अन्य के एच.आई.वी. से संक्रमित होने का पता चला। हालांंकि कानपुर प्रशासन का कहना है कि लड़कियां बाल संरक्षण गृह में आने से पहले ही गर्भवती थीं। इस खबर पर एक बार फिर राजनीति शुरू हो गई है। दरअसल जरूरी मुद्दे उठाने के लिए राजनीति बुरी चीज नहीं है लेकिन विडम्बना यह है कि कभी-कभी राजनीति के चक्कर में मूल मुद्दा गौण हो जाता है। 

इस मामले में विस्तृत जांच होने के बाद ही कई बातें साफ हो पाएंगी। कटु सत्य यह है कि इस प्रगतिशील दौर में भी हम बेटियों के मामले में कई बार लापरवाही कर जाते हैं। सवाल यह है कि कानपुर के संरक्षण गृह में इतनी लड़कियां कोरोना संक्रमित कैसे हो गईं? यह पहली बार नहीं है जबकि संरक्षण गृह में लापरवाही हुई है, इससे पहले भी देश के विभिन्न संरक्षण गृहों से लापरवाही की खबरें आती रही हैं। एक तरफ संरक्षित गृह में बेटियों के शोषण की घटनाएं प्रकाश में आती हैं तो दूसरी तरफ बेटियों से बलात्कार की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। 

इस प्रगतिशील दौर में हमें यह सोचना होगा कि बेटियों के सन्दर्भ में बड़ी-बड़ी बातें करने वाला यह समाज बेटियों के सन्दर्भ में खोखला आदर्शवाद क्यों अपना लेता है? हमें इस बात पर भी विचार करना होगा कि एक इन्सान के तौर पर हमारी इस गिरावट का कारण क्या है? हम बाहर की कानून-व्यवस्था को कोस कर संतुष्ट हो सकते हैं लेकिन अपने अन्तर की कानून व्यवस्था की जिम्मेदारी तो हमें स्वयं ही लेनी होगी। दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि हम बाहर की कानून व्यवस्था के लिए तो विभिन्न सरकारों को जिम्मेदार ठहराते रहते हैं लेकिन अपने अन्तर की कानून-व्यवस्था सुधारने पर ध्यान नहीं देते हैं। क्या यह समाज बेटियों की इज्जत और जान बचाने में इतना असहाय और असमर्थ हो गया है कि उसके सामने बेटियों पर विभिन्न तौर तरीकों से हमले होते रहें और वह चुप्पी साध ले। छोटी-छोटी बच्चियों को शिकार बनाते हुए अगर हमारा दिल नहीं पसीजता है तो इससे शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता। 

यह दुर्भाग्यपूर्ण ही है कि हम अभी तक भी बेटियों को सम्मान देना नहीं सीख पाए हैं लेकिन बेटियां इस सब से बेपरवाह हमें सम्मान देने में जुटी हुई हैं। बेटियां आसमान में उड़कर आसमां छू रही हैं और हम जमीन पर उन्हें दबोच कर उनके आत्मसम्मान को ठेस पहुंचा रहे हैं। हमारे देश की बेटियों ने यह कई बार सिद्ध किया है कि यदि उन्हें प्रोत्साहन और सम्मान दिया जाए तो वे हमारे देश को अन्तर्राष्ट्रीय फलक पर एक नई पहचान दिला सकती हैं। 

रियो डि जेनेरियो में हुए आेलिम्पिक में कांस्य पदक जीतने वाली महिला पहलवान साक्षी मलिक के पिता ने कुछ समय पहले बताया था कि जब मैं पहली बार अपनी बेटी को कुश्ती सिखाने के लिए अखाड़े में लेकर गया तो मुझे समाज के ताने सुनने पड़े थे। समाज की यह नकारात्मकता लड़कियों के आत्मविश्वास को कम करती है। जो लड़कियां इस नकारात्मकता को चुनौती के रूप में लेती हैं वे एक न एक दिन सफलता का परचम जरूर लहराती हैं। यह विडम्बना ही है कि शिक्षित होने के बावजूद हम अभी आत्मिक रूप से विकास नहीं कर पाए हैं। केवल डिग्रियां बटोर कर शिक्षित हो जाना ही समाज की प्रगतिशीलता का पैमाना नहीं है। शिक्षा ग्रहण कर समाज के हर वर्ग के उत्थान में उसका उपयोग करना ही सच्ची प्रगतिशीलता है। इस दौर में विचारणीय प्रश्न यह है कि क्या हम लड़कियों के सन्दर्भ में सच्चे अर्थों में प्रगतिशील हैं? क्या लड़कियों को पढ़ाना-लिखाना और आधुनिक परिधान पहनने की अनुमति देना ही प्रगतिशीलता है? दरअसल हम प्रगतिशीलता के अर्थ का उपयोग बहुत ही सीमित सन्दर्भों में करते हैं। 21वीं सदी में भी यदि हम लड़कियों की रक्षा नहीं कर सकते तो इससे ज्यादा शर्मनाक कुछ नहीं हो सकता। 

दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि खेलों में भी लड़कियों को अनेक स्तरों पर चुनौतियां झेलनी पड़ती हैं। छोटी उम्र में अनेक लड़कियों को समाज के डर से अपने शौक की कुर्बानी देनी पड़ती है। इसीलिए हमारे देश में बहुत सारी महिला प्रतिभाएं जन्म ही नहीं ले पाती हैं या फिर असमय दम तोड़ देती हैं। जो महिला प्रतिभाएं परिवार के प्रोत्साहन से खेलों की तरफ रुख करती हैं,उन्हें भी अनेक पापड़ बेलने पडऩे हैं। विडम्बना यह है कि एक तरफ बेटियां खेलों में पसरी राजनीति से जूझती हैं तो दूसरी तरफ समाज में पसरी राजनीति उनकी राह में कांटे बिछा देती है। बेटियों के खिलाफ समाज में पसरी यह राजनीति अन्तत: सामाजिक विकास को पीछे धकेलती है। फलस्वरूप बेटों और बेटियों में अनेक स्तरों पर एक अन्तर बना रहता है। यह अन्तर विद्यमान रहने के कारण ही उन्हें ‘देह’ भर माना जाता है। 

इस दौर में बेटियों से बलात्कार की बढ़ती हुई घटनाएं और उन पर लगातार हो रहे हमले इस बात का प्रमाण हैं कि हम आज भी बेटियों को मात्र भोग की वस्तु मानते हैं। इस तथ्य को गलत सिद्ध करने के लिए यह कहा जा सकता है कि सारा समाज एेसा नहीं है। लेकिन वास्तविकता यह है कि जब सामने से कोई लड़की गुजरती है तो सभ्य लोगों के चेहरे पर भी एक कुटिल मुस्कान बिखर जाती है। यह कुटिल मुस्कान सिद्ध करती है कि हमारी सोच में कोई न कोई खोट जरूर है। सुखद यह है कि इस माहौल में भी लड़कियों के हौसले बुलन्द हैं और वे लगातार सफलता की नई कहानियां लिख रही हैं।-रोहित कौशिक 
 

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