बाबाओं की ‘गिरफ्त’ में क्यों है समाज

Edited By Punjab Kesari,Updated: 20 Jun, 2018 04:31 AM

why is babas arrest in the society

हाल ही में दिल्ली के दाती महाराज पर बलात्कार का आरोप लगाया गया है। इस क्रम में आसाराम, रामपाल, राम रहीम और वीरेन्द्र देव दीक्षित जैसे बाबाओं की एक लम्बी सूची हमारे सामने है। उधर बहुचर्चित आध्यात्मिक गुरु भय्यूजी महाराज के अचानक आत्महत्या कर लेने की...

हाल ही में दिल्ली के दाती महाराज पर बलात्कार का आरोप लगाया गया है। इस क्रम में आसाराम, रामपाल, राम रहीम और वीरेन्द्र देव दीक्षित जैसे बाबाओं की एक लम्बी सूची हमारे सामने है। उधर बहुचर्चित आध्यात्मिक गुरु भय्यूजी महाराज के अचानक आत्महत्या कर लेने की खबर भी बाबाओं के व्यवहार पर प्रश्नचिन्ह लगा रही है। 

सवाल यह है कि इस दौर में भी हमारा समाज ढोंगी बाबाओं की गिरफ्त में क्यों है? हमारे देश में प्रभावी लोगों, राजनेताओं और बाबाओं का गठजोड़ अन्तत: समाज में बिखराव पैदा कर रहा है। इस दौर में धार्मिक आश्रमों के अनुयायियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। इसीलिए सभी राजनीतिक दल इन आश्रमों को अपने पाले में करना चाहते हैं। इस चाहत में ये दल धार्मिक आश्रमों के अनुचित क्रियाकलापों को भी नजरअंदाज करते रहते हैं। दूसरी ओर आश्रमों के प्रमुख अपने अनुयायियों को मनोवैज्ञानिक रूप से इस तरह जकड़ लेते हैं कि वे अपने प्रमुख के खिलाफ  कुछ सुनना नहीं चाहते। 

दरअसल बाजारवाद के इस दौर में अध्यात्म का जिस तरह से बाजारीकरण किया जा रहा है वह दुर्भाग्यपूर्ण है। धर्म के इस बाजारीकरण से लोगों को मूर्ख बनाया जा रहा है। आज धर्म को जिस तरह से स्वार्थसिद्धि का साधन बनाया जा रहा है वह किसी से छिपा नहीं है। धर्म के नाम पर आज अधिकांश बाबाओं द्वारा जिस तरह के क्रियाकलाप किए जा रहे हैं वे किसी भी लिहाज से धर्म की परिधि में नहीं आते हैं। बाबाओं द्वारा सुशोभित मंचों से मोह एवं माया को त्यागने के प्रवचन देना तथा अपने निजी जीवन में मोह एवं माया में लिप्त रहना आज एक सामान्य-सी बात हो गई है। धीरे-धीरे एक ऐसा तंत्र विकसित हो रहा है जो अपनी सम्पूर्ण ताकत झोंककर धर्म का व्यवसायीकरण करना चाहता है। यह तंत्र काफी हद तक अपने उद्देश्य में सफल भी हो रहा है और इसी कारण आज धर्म पूर्णकालिक व्यवसाय बन गया है। 

ऐसा नहीं है कि अपने निहित स्वार्थों के लिए धर्म का दुरुपयोग केवल इसी काल में ही किया जा रहा है। दरअसल धर्म के नाम पर जनमानस को मूर्ख बनाने की प्रक्रिया प्राचीनकाल से ही शुरू हो गई थी जो आज भी जारी है। आज हालात यह हैं कि धर्म के सहारे ही विभिन्न धर्माचार्य एवं मठाधीश अपार धन-दौलत बटोर रहे हैं। हर किसी को धर्म एक ऐसा साधन दिखाई दे रहा है जहां शत-प्रतिशत सफलता की गारंटी है। आज राजनीतिक दल भी इस विचारधारा से अछूते नहीं रहे हैं। वे भी धर्म के नाम पर जनता की भावनाओं को बखूबी भुना रहे हैं। धर्म के इस परिवर्तित स्वरूप ने हमें एक ऐसे चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है जहां हम यह ही तय नहीं कर पा रहे हैं कि हमें किस रास्ते पर आगे बढऩा है?

प्रश्न यह है कि हमारे आध्यात्मिक आका कब तक जनता की भावनाओं को भुनाते रहेंगे और कब तक हम इनके संदिग्ध क्रियाकलापों को नजरअंदाज करते रहेंगे? अगर धर्म का व्यवसायीकरण इसी तरह जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं जब इस समाज से बची-खुची नैतिकता भी समाप्त हो जाएगी और शेष रह जाएंगे इंसान के रूप में आत्माविहीन ठूंठ। उस समय इस समाज की हालत क्या होगी? यह सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। इस दौर में बाबाओं पर यौन शोषण के आरोप लगना आम हो गया है। इसके अतिरिक्त आज सम्पूर्ण देश में कुछ आध्यात्मिक आश्रमों एवं मठों में विभिन्न प्रकार के घिनौने कुकृत्य हो रहे हैं। दरअसल आज बाबाओं का एक वर्ग सुख-सुविधाओं से परिपूर्ण जिस वातावरण में जी रहा है, वहां वासना के अंकुर का प्रस्फुटन कोई बड़ी बात नहीं है। यदि आज बाबा और साधु-संत ही काम पिपासु बनकर अपनी शक्ति का दुरुपयोग करने लगेंगे तो हम आने वाली पीढ़ी को किस मुंह से नैतिकता की शिक्षा देंगे? 

सांस्कृतिक क्षरण के इस दौर में संत समाज ठीक ढंग से अपनी भूमिका तभी निभा पाएगा जब वह संत की परिभाषा को पूर्ण करेगा। भगवा वस्त्रों में इस तरह के घिनौने कुकृत्य करने वाले लोग संत कभी नहीं हो सकते। अब समय आ गया है कि संत समाज स्वयं ही अपने बीच में से कुकृत्य करने वाले शैतानों को निकालकर अलग पंक्ति में खड़ा करे। धर्म के नाम पर यौन शोषण एवं साधु-संतों के नाम को कलंकित करने की इजाजत किसी को भी नहीं दी जा सकती। आज आधुनिक साधु-संत और बाबा जिस तरह से विलासितापूर्ण जीवन जी रहे हैं, उसे देखकर आश्चर्य होता है। धर्माचार्यों के आश्रमों को यदि महल की संज्ञा दी जाए तो कोई अतिशयोक्ति न होगी। आज साधु-संतों के विभिन्न आश्रम, अखाड़े एवं मठ जिस तरह से गंदी राजनीति का शिकार हो रहे हैं वह भी दुर्भाग्यपूर्ण ही है।

मठाध्यक्ष बनने के लिए साधु-संतों के बीच जिस तरह का शक्ति प्रदर्शन होता है उसे देखकर यह अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है कि जनमानस को रास्ता दिखाने वाला यह समुदाय आज स्वयं ही अपने रास्ते से भटक गया है। छल, कपट और तमाम तरह के गलत रास्ते अपनाकर आश्रमों एवं मठों की सत्ता पर कब्जा कर लेने में आज साधु-संतों को गौरव का अनुभव होता है। मात्र इतना ही नहीं बल्कि एक कदम बढ़कर धर्म के रखवाले ये महानुभाव अपने प्रतिद्वंद्वी साथी की हत्या कर देना या करवा देना भी अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। संत-समुदाय में धन-दौलत या सत्ता कब्जाने को लेकर एक-दूसरे को मौत के घाट उतार देने के मामले अक्सर प्रकाश में आते रहे हैं। 

दरअसल सच्चा संत तो मात्र प्रेम के रास्ते पर चलना जानता है। घृणा और द्वेष तो उसे छू भी नहीं पाते हैं। एक संत का हृदय इतना निर्बल कभी नहीं हो सकता कि घृणा और द्वेष उसके हृदय से प्रेम को बाहर निकालकर वहां अपना घर बसा लें। आज साधु-संत जिस गति से राजनीति में आ रहे हैं वह भी इस समाज के लिए शुभ नहीं है। जब साधु-संत राजनीति में आते हैं तो उनका कहना यह होता है कि वर्तमान में धर्म के अभाव में राजनीति गलत रास्ते पर जा रही है और धर्म के माध्यम से राजनीति को एक नई दिशा देने के लिए ही वे राजनीति में उतरे हैं। धर्म के रखवाले जब राजनीति में उतरते हैं तो वे राजनीति को तो कोई राह नहीं दिखा पाते बल्कि स्वयं ही राजनीति के माध्यम से भौतिक संतुष्टि की राह देख लेते हैं। 

इस समस्त प्रक्रिया में धर्म नारों एवं तथाकथित उपदेशों तक ही सीमित रहता है। हमारे देश की राजनीति का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही है कि वह खोखले आदर्शवाद की स्थिति से बाहर नहीं निकल पा रही है। आज जब राजनीति में विभिन्न धर्माचार्यों का आचरण भ्रष्ट राजनीतिज्ञों के आचरण के समकक्ष ठहरता है तो हमारा सिर शर्म से झुक जाता है। आज साधु-संतों एवं उनके पिछलग्गू धर्म के कुछ ठेकेदारों ने यह अच्छी तरह समझ लिया है कि भारतीय जनता धर्म के नाम पर आंख मंूद कर बिना कुछ सोचे-समझे अपनी सभी हदों को पार कर सकती है। व्यावसायिकता एवं कठिन प्रतिस्पर्धा के इस दौर में आज प्रत्येक व्यक्ति किसी न किसी रूप में मानसिक तनाव झेल रहा है, उधर दूसरी ओर भारतीय जनमानस का एक बड़ा वर्ग अध्यात्म और धर्म के सहारे ही इस मानसिक तनाव को कम करने की कोशिश कर रहा है। धर्म के ठेकेदारों ने संघर्ष से जूझते आम आदमी की परेशानी को बखूबी समझ लिया है और वे इसी के सहारे अपना व्यवसाय चला रहे हैं। सुप्रसिद्ध संतों के माध्यम से बड़े-बड़े बजट वाली कथाएं आयोजित कराना भी इसी प्रकार का एक व्यवसाय है। 

पिछले 10 वर्षों में श्रीराम कथा एवं श्रीमद् भागवत कथा के आयोजन की बाढ़-सी आ गई है। इन कथाओं का प्रवचन करने वाले संत एवं आयोजकगण स्वयं ही प्रवचनों में कही गई बातों के अनुरूप आचरण नहीं करते हैं। ऐसे में प्रवचन सुनने वाले श्रोताओं से यह आशा कैसे की जा सकती है कि उन पर प्रवचन का कोई प्रभाव पड़ेगा और वे उसी के अनुरूप आचरण करेंगे? इसी कारण आज इन कथाओं का आयोजन समाज को कोई नई दिशा नहीं दे पा रहा है। पंडाल में बैठकर प्रवचन सुनते हुए हमें सब कुछ सही लगता है लेकिन पंडाल से बाहर निकलते ही हम फिर उसी तरह का आचरण करने लगते हैं। 

दरअसल आज बाबाओं और धर्माचार्यों द्वारा जिस तरह का खोखला आदर्शवाद प्रस्तुत किया जा रहा है उसका सीधा प्रभाव हमारे समाज पर पड़ रहा है। अब समय आ गया है कि हम धर्म के नाम पर किसी भी साधु-संत या बाबा पर आंख मूंदकर विश्वास करने से पहले अपने मस्तिष्क के द्वार खोलें। अपने और समाज के हित के लिए हमें अपने अंदर वैज्ञानिक चेतना का विकास करना ही होगा। वैज्ञानिक दृष्टिकोण के अभाव में आसाराम, रामपाल, राम रहीम और वीरेन्द्र देव दीक्षित और दाती महाराज जैसे बाबा भविष्य में भी समाज को मूर्ख बनाते रहेंगे।-रोहित कौशिक

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