‘एयर इंडिया’ को कोई खरीददार क्यों नहीं मिल रहा

Edited By Punjab Kesari,Updated: 10 Jun, 2018 03:57 AM

why is not air india a buyer

एयर इंडिया निजीकरण मामले में क्या सरकार ने सब कुछ गुड़-गोबर कर दिया? एक भी व्यक्ति या संस्थान द्वारा इस विमानन कम्पनी के अधिग्रहण में रुचि न दिखाने की स्थिति में अन्य कोई निष्कर्ष निकालना मुश्किल है। अधिकतर लोगों का ऐसा ही मानना है लेकिन सरकार...

एयर इंडिया निजीकरण मामले में क्या सरकार ने सब कुछ गुड़-गोबर कर दिया? एक भी व्यक्ति या संस्थान द्वारा इस विमानन कम्पनी के अधिग्रहण में रुचि न दिखाने की स्थिति में अन्य कोई निष्कर्ष निकालना मुश्किल है। अधिकतर लोगों का ऐसा ही मानना है लेकिन सरकार लगातार इससे असहमत है इसलिए आज आइए हम यह परीक्षण करें कि आंकड़े हमें किस ओर लेकर जाते हैं। 

अंतिम समय सीमा से 24 घंटे पहले तक भी सरकार यही रट लगाए हुए थी कि अंतिम एक घंटे में प्रस्तावों का ढेर लग जाएगा। लेकिन जब ऐसा नहीं हुआ तो अनाम अधिकारियों ने दाएं-बाएं दोष लगाने शुरू कर दिए। सलाहकारों की जिम्मेदारी भी तय की गई और आरोप लगाया गया कि उन्होंने सही ढंग से संचार स्थापित नहीं किया। औद्योगिक जगत पर यह आरोप लगाया गया कि वह जोखिम उठाने की भावना खो बैठा है। समय की कमी का रोना भी रोया गया। सरकार ने यदि किसी निकाय पर कोई दोषारोपण नहीं किया तो वह था खुद इसका अपना-आप और निजीकरण के लिए तय की गई विवादपूर्ण शर्तें। 

फिर भी नि:संदेह रूप में समस्या इसी बिंदु से शुरू हुई थी। सर्वप्रथम तो सरकार ने 24 प्रतिशत हिस्सेदारी बनाए रखने का विकल्प चुना जिससे इसे बेची गई एयरलाइन के बोर्ड में स्वत: ही एक निदेशक हासिल हो जाना था। संभावी खरीददारों को ऐसा लगा कि ऐसी स्थिति में वे अपनी मर्जी से एयर इंडिया का परिचालन नहीं कर पाएंगे। यदि वे पीछे हट गए हैं तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं। खरीददारों को दूर भगाने वाली दूसरी बात यह थी कि 33 हजार करोड़ रुपए से भी अधिक की ऋण देनदारी के चलते खरीददारों को ऐसा लगा कि राष्ट्रीय विमान यातायात में मात्र 12 प्रतिशत और अंतर्राष्ट्रीय विमान यातायात में 17 प्रतिशत से कम हिस्सेदारी तक फिसल चुकी इस विमान कम्पनी को लाभ में लाना संभव नहीं होगा। 

इतना ही नहीं, इन भारी-भरकम शर्तों से भी जैसे सरकार का मन न भरा हो। इसने संभावी निविदाकत्र्ताओं को हताश करने के लिए कुछ अन्य प्रावधान कर दिए। वर्तमान में एयर इंडिया में 11,214 पक्के कर्मचारी हैं और यह माना जाता है कि दुनिया में तुलनात्मक रूप में सबसे अधिक कर्मचारी इसी कम्पनी में थे। सरकार ने यह शर्त लगाई हुई थी कि इन पक्के कर्मचारियों में से किसी को भी कम्पनी की बिक्री के कम से कम एक वर्ष बाद तक नौकरी से नहीं निकाला जाएगा और उसके बाद भी सरकार से अनुमति लिए बिना उन्हें काम से जवाब नहीं दिया जाएगा। ऐसे में अधिकतर खरीददारों ने समझदारी से काम लेते हुए नीलामी प्रक्रिया से दूर रहना ही बेहतर समझा। 

यह प्रावधान भी कोई कम हताश करने वाला नहीं था कि कम्पनी के खरीददार को एयर इंडिया का परिचालन इस तरह करना होगा कि उसके अन्य कारोबारों से इसकी दूरी बनाए रखी जाए। किसी ने इस प्रावधान की व्याख्या नहीं की कि ऐसा करना क्यों जरूरी था लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि इस प्रावधान के चलते खरीददार के लिए अपनी आर्थिक और व्यावसायिक ऊर्जाओं को एकजुट करने में समस्याएं दरपेश आना लाजमी होता। इस पृष्ठभूमि के मद्देनजर यह लगभग अटल था कि एयर इंडिया बिक नहीं पाएगी। अब इसका तात्पर्य यह है कि सरकार यदि इसका निजीकरण करना चाहती है तो इसे नए सिरे से चिंतन-मनन करना होगा। 

लेकिन यदि निजीकरण का यह दूसरा प्रयास पहले विफल प्रयास से अलग तरह का होना है तो इसकी शुरूआत अनिवार्य रूप में इस स्वीकारोक्ति के साथ होनी चाहिए कि प्रथम प्रयास में न केवल अवांछित शर्तें ठूंसी गई थीं बल्कि इसमें गलत परामर्शों की भी भरमार थी। इन सभी को हटाने की जरूरत होगी। वास्तव में निश्चय ही एकमात्र समाधान यह है कि 100 प्रतिशत हिस्सेदारी बिक्री के लिए प्रस्तुत की जाए और यह काम बिना किसी प्रकार के बेवकूफी भरे प्रतिबंधों की सरल शर्तों पर किया जाना चाहिए। वास्तव में वही काम क्यों न किया जाए जो मार्गरेट थैचर ने ब्रिटिश गैस और ब्रिटिश टैलीकॉम का निजीकरण करने के लिए किया था।  यानी कि पूरे के पूरे ऋण पर लकीर फेर दी जाए और खरीददारों को दो टूक शब्दों में कहा जाए कि वे विमानन कम्पनी की जितनी वास्तविक कीमत समझते हैं उसी के अनुसार बोली लगाएं?-करण थापर

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