पेट्रोल के दाम घटते क्यों नहीं

Edited By Pardeep,Updated: 10 Sep, 2018 04:00 AM

why not reduce the price of petrol

हमेशा से पैट्रोल की कीमत को मुद्दा बनाने वाली भाजपा की सरकार पैट्रोल की कीमत पर ही फंस गई है। ऐसा नहीं है कि पैट्रोल  की कीमत सरकार नियंत्रित नहीं कर सकती है। सच तो यह है कि पैट्रोल पर इस समय लगभग 85 प्रतिशत टैक्स वसूला जा रहा है और इसके लिए...

हमेशा से पैट्रोल की कीमत को मुद्दा बनाने वाली भाजपा की सरकार पैट्रोल की कीमत पर ही फंस गई है। ऐसा नहीं है कि पैट्रोल  की कीमत सरकार नियंत्रित नहीं कर सकती है। सच तो यह है कि पैट्रोल पर इस समय लगभग 85 प्रतिशत टैक्स वसूला जा रहा है और इसके लिए पैट्रोलियम उत्पादों को जी.एस.टी. से बाहर रखा गया है। सरकार अगर ऐसा कर रही है तो इसका कारण मजबूरी के अलावा कुछ और नहीं हो सकता है। 

ऐसा नहीं है कि पैट्रोल की कीमत कम करने के लिए उस पर दबाव नहीं है। सरकार ने जब खुद इसे मुद्दा बनाया था तो कोई कारण नहीं है वह विपक्ष को भी इसे मुद्दा बनाने का मौका दे। इसलिए कोई भी संभावना होती तो सरकार पैट्रोल की कीमत इतना नहीं बढऩे देती। इसका कारण यह समझ में आता है कि नोटबंदी के बाद जी.एस.टी. ही नहीं, गैर-सरकारी संगठनों  पर नियंत्रण, छोटी-मोटी हजारों कम्पनियों पर कार्रवाई आदि कई ऐसे कारण हैं जिनसे देश में काम- धंधा कम हुआ है और टैक्स के रूप में पैसे कम आ रहे हैं। इनमें कुछ कार्रवाई तो वाजिब है और सरकार इसका श्रेय भी ले सकती थी  पर पैसे कम आ रहे हैं। यह स्वीकार करना मुश्किल है। इसलिए सरकार अपने अच्छे काम का श्रेय भी नहीं ले पा रही है। 

दूसरी ओर, बहुत सारी कार्रवाई एक साथ किए जाने से आर्थिकस्थिति खराब हुई है, इसमें कोई शक नहीं है। इसलिए सरकार को अपने खर्चे पूरे करने का सबसे आसान विकल्प यही मिला है। इसलिए पैट्रोल की कीमत कम नहीं हो रही है। सरकार माने या न माने यह नीतिगत फैसला है। तभी पैट्रोलियम पदार्थों को जान-बूझकर जी.एस.टी. से अलग रखा गया है वरना जी.एस.टी. में इसके लिए एक अलग और सबसे ऊंचा स्लैब रखना पड़ता और यह बात सार्वजनिक हो जाती कि सरकार पैट्रोल पर सबसे ज्यादा टैक्स ले रही है। पैट्रोलियम पदार्थों को जी.एस.टी. में लाने की मांग होती रही है, पर सरकार इसे टाल जाती है। इसमें कोई दो राय नहीं है कि मंदी के कारण भू-संपदा बाजार की हालत भी खराब है। यही नहीं सरकार ने अभी तक पैट्रोल पर इतना ज्यादा टैक्स वसूलने का कोई संतोषजनक कारण नहीं बताया है। इससे भी लगता है कि सरकार नोटबंदी के भारी खर्च से उबर नहीं पाई है। 

दिल्ली में रहने वाले पुराने लोग जानते हैं कि कैसे मोहल्ले के मोहल्ले दो-चार साल में बस जाते थे। पर अभी हालत यह है कि नोएडा और गुडग़ांव में हजारों बिल्डिंग और फ्लैट बनकर तैयार खड़े हैं। वर्षों से बसे नहीं हैं। कॉमनवैल्थ गेम्स विलेज तकनीकी तौर पर भले बिक गया हो, पर इलाका अभी ठीक से बसा नहीं है। वहां निवेशकों का पैसा लगा था और डी.डी.ए. के हिस्से का एक फ्लैट एक सरकारी बैंक ने नीलामी में सात करोड़ रुपए में खरीदा था जो अब लगभग तीन करोड़ में उपलब्ध है। खरीदार नहीं है। सैंकड़ों फ्लैट अभी खाली हैं यानी निवेशकों का पैसा फंसा हुआ है। असली उपयोगकत्र्ता नहीं खरीद पाए हैं। 

ऐसी हालत में जाहिर है, सरकार को टैक्स और राजस्व भी कम आएंगे और इन सबकी भरपाई जी.एस.टी. से तो हो नहीं सकती क्योंकि जी.एस.टी. को अच्छा बनाने के लिए हर मांग पर टैक्स कम करना पड़ता है। ऐसे में पैट्रोल सबसे आसान विकल्प है। बिक्री होगी ही और संयोग से अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमतें कम होने से सरकारी राजस्व की अच्छी भरपाई हुई। अब जब कीमतें बढ़ रही हैं तो पुरानी नीतियों के कारण सरकार उस पर लगाम नहीं लगा सकती और विरोध बढ़ रहा है। समस्या तब आएगी जब अंतर्राष्ट्रीय बाजार में कीमतें लगातार बढ़ती जाएं। वैसी हालत में सरकार को टैक्स कम करके दाम कम करने ही पड़ेंगे, पर वह स्थिति क्या होगी, कब आएगी या आएगी भी कि नहीं अभी कुछ कहा नहीं जा सकता। 

सरकार की मंशा ठीक हो सकती है, पर देश की सामाजिक और आर्थिक दशा की नब्ज पर उंगली रखने वाले विद्वान उससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि बुलेट ट्रेन और स्मार्ट सिटी जैसी महत्वाकांक्षी और मोटी रकम खर्च करने वाली योजनाओं से न तो गरीबी दूर होगी, न देशभर में रोजगार का सृजन होगा और न ही व्यापार में बढ़ौतरी होगी। चीन इसका जीता-जागता उदाहरण है। जिसने अपने पुराने नगरों को तोड़-तोड़कर अति आधुनिक नए नगर बसा दिए। उनमें हाई-वे और मॉल जैसी सारी सुविधाएं अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सर्वश्रेष्ठ दर्जे की बनाई गईं, पर जिस गति से चीन का आधुनिकीकरण हुआ, उस गति से वहां की आम जनता की आमदनी नहीं बढ़ी। नतीजा यह है कि चीन की तरक्की कागजी बनकर रह गई। 

पिछले 6 महीनों में जिस तेजी से चीन की अर्थव्यवस्था का पतन हुआ है, उससे पूरी दुनिया को झटका लगा है। फिर भी अगर भारत सबक न ले और अपने गांवों की बुनियादी समस्याओं को दूर किए बिना बड़ी छलांग लगाने की जुगत में रहे तो मुंह की खानी पड़ सकती है। कुल मिलाकर जरूरत धरातल पर उतरने की है। यह सब देखकर लगता है कि भारत की आर्थिकस्थिति इतनी बुरी नहीं कि आम आदमी को अपना जीवनयापन करना कठिन लगे, पर जाहिर है कि पुरानी व्यवस्थाओं के कारण काफी कुछ अभी भी पटरी पर नहीं आया है जिसका खमियाजा आम जनता भुगत रही है।-विनीत नारायण

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