पाकिस्तान में ‘मुहाजिरों की स्थिति’ दयनीय क्यों

Edited By ,Updated: 22 Nov, 2019 01:01 AM

why the  situation of idiots  in pakistan is pathetic

गत दिनों निर्वासित पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ अल्ताफ हुसैन द्वारा भारत से शरण मांगने का मामला प्रकाश में आया। बकौल अल्ताफ, ‘‘यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुझे भारत आने की इजाजत दें, तो मैं अपने साथियों के साथ भारत पहुंच जाऊंगा, क्योंकि मेरे दादा और दादी...

गत दिनों निर्वासित पाकिस्तानी राजनीतिज्ञ अल्ताफ हुसैन द्वारा भारत से शरण मांगने का मामला प्रकाश में आया। बकौल अल्ताफ, ‘‘यदि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी मुझे भारत आने की इजाजत दें, तो मैं अपने साथियों के साथ भारत पहुंच जाऊंगा, क्योंकि मेरे दादा और दादी को वहीं दफनाया गया है। मेरे हजारों रिश्तेदारों को वहीं दफनाया गया है। मैं भारत में उनकी कब्रों पर जाना चाहता हूं। 

अल्ताफ  हुसैन उन लाखों मुसलमानों के प्रतिनिधि हैं जिनके परिवार ने 1947 के रक्तरंजित विभाजन के बाद भारत छोड़कर एक नए देश-पाकिस्तान जाने का निर्णय किया था। क्या कारण है कि आज उन्हीं लोगों का एक बड़ा हिस्सा इस इस्लामी देश से न केवल निराश है, साथ ही भारत वापस लौटने हेतु गुहार भी लगा रहा है? इस प्रश्न का उत्तर वास्तव में इस तथ्य में निहित है कि केवल मजहब आधारित कोई राष्ट्र जीवित नहीं रह सकता है। यही कारण है कि पाकिस्तान अपने जन्म से एक स्थिर और क्रियाशील देश नहीं बन पाया और तभी से वह एक तरफ भारत से तो दूसरी ओर अपने आप से लड़ता जा रहा है। 

जेहादी जुनून से बचने के लिए हिंदू और सिख परिवार भारत में आकर बसे
ऐसा नहीं था कि विभाजन के बाद केवल खंडित भारत से मुस्लिम ही पाकिस्तान जाकर बसे, कई हिंदू और सिख परिवार भी जेहादी जुनून से बचने और सुरक्षा हेतु पाकिस्तान से खंडित भारत में आकर बस गए। यहां उन्हें कभी राजकीय या सार्वजनिक रूप से शरणार्थी या किसी अन्य विकृत संज्ञाओं से संबोधित नहीं किया गया, अपितु उन्हें समान संवैधानिक और लोकतांत्रिक अवसर दिए गए। कालांतर में कुछ तो देश के संवैधानिक पदों तक भी पहुंचे। 

अविभाजित पंजाब के झेलम (वर्तमान में पाकिस्तानी जिला) में 4 दिसम्बर 1919 को जन्मे, लाहौर से स्नातक उपाधि प्राप्त इंद्र कुमार गुजराल 1997 में देश के 12वें प्रधानमंत्री बने। इसी तरह, डा. मनमोहन सिंह का जन्म 26 सितम्बर 1932 को गाह (पाकिस्तानी पंजाब का एक गांव) में हुआ, जो विभाजन के बाद अमृतसर आकर बसे और आगे चलकर पहले अपनी पहचान विख्यात अर्थशास्त्री की बनाई, फिर 2004-14 तक भारत के प्रधानमंत्री भी रहे। यही नहीं, भाजपा के वरिष्ठ नेता और अयोध्या आंदोलन के सूत्रधार लालकृष्ण अडवानी का जन्म 8 नवम्बर 1927 को कराची में हुआ, वह भी 2002 में भारत के सातवें उप-प्रधानमंत्री बने। इस तरह के दर्जनों उदाहरण हैं जो इस भूखंड की अनंतकालीन सनातन संस्कृति और बहुलतावादी परम्पराओं के कारण ही संभव हुआ है। 

इस पृष्ठभूमि में विभाजन के बाद पाकिस्तान जाकर बसे मुसलमानों की स्थिति क्या है? वर्ष 1947 में जब पाकिस्तान बना, तब खंडित भारत से, विशेषकर तत्कालीन उत्तर प्रदेश, मध्यप्रदेश और बिहार आदि क्षेत्रों से लाखों की संख्या में उर्दू भाषी मुस्लिम- कराची, सिंध और ढाका आदि क्षेत्रों में जाकर बस गए। दिलचस्प बात यह है कि उस समय जो मुसलमान भारत के स्वतंत्रता आंदोलन के बजाय मुस्लिम लीग के प्रति अधिक वफादार थे, उनमें से अधिकांश ने विभाजन के बाद भारत में रहना पसंद किया और कालांतर में कांग्रेस से जुड़ गए। 

मुसलमानों की ‘शुद्ध भूमि’ पाकिस्तान
मुसलमानों की ‘शुद्ध भूमि’ मानकर जब लाखों उर्दू भाषी भारतीय मुस्लिम विभाजन के बाद पाकिस्तान पहुंचे, तो कालांतर में उन्हें नई पहचान मिली- ‘मुहाजिर’ अर्थात शरणार्थी। पश्चिमी पाकिस्तान (वर्तमान पाकिस्तान) जाने वाले अधिकतर मुस्लिम उत्तरप्रदेश से थे, तो पूर्वी पाकिस्तान (वर्तमान बंगलादेश) का रुख करने वाले अधिकांश मुसलमान बिहार से। 1971 में ‘बंगलादेश मुक्ति युद्ध’ के समय बिहार से गए मुस्लिमों की संख्या 7.5 लाख थी, जिनमें से अधिकांश पाकिस्तान के समर्थन में खड़े रहे। परिणामस्वरूप, बंगलादेश बनने के बाद उन पर हमले बढ़ गए और 1.5 लाख से अधिक लोगों को मौत के घाट उतार दिया गया। यहां मरने और मारने वाले दोनों इस्लाम के अनुयायी थे। कालांतर में एक समझौते के अंतर्गत लगभग 1.7 लाख उर्दू भाषी (बिहार) मुस्लिमों को पाकिस्तान भेज दिया गया। अब वर्तमान समय में पाकिस्तान की कुल आबादी लगभग 21 करोड़ है, जिसमें मुहाजिरों की संख्या 8 प्रतिशत अर्थात लगभग 1.7 करोड़ है। अकेले सिंध में मुहाजिरों की संख्या 80 लाख है। 

मुहाजिरों के इलाके दरिद्रता और गंदगी से भरे पड़े
कराची का गुज्जर नाला, ओरंगी टाऊन, अलीगढ़ कालोनी, बिहार कालोनी और सुर्जानी आदि क्षेत्र अधिकांश मुहाजिरों से भरे पड़े हैं, जहां दरिद्रता और गंदगी चरम पर है। पाकिस्तान की घोषित इस्लामी हुकूमत द्वारा अपनी अनदेखी किए जाने पर और अपने अधिकार-हित सुरक्षित करने हेतु मुहाजिरों ने 1980 के दशक में अपनी बहुलता वाले सिंध को एक अलग स्वतंत्र राष्ट्र बनाने के लिए ‘मुहाजिर कौमी मूवमैंट’ (एम.क्यू.एम.) संगठन बनाकर संघर्ष शुरू किया, जिसका नेतृत्व अल्ताफ हुसैन 1984 से अब भी कर रहे हैं। अल्ताफ  भारत से पहले संयुक्त राष्ट्र, अमरीका, नाटो से भी मदद मांग चुके हैं ताकि पाकिस्तान में मुहाजिरों के हितों की रक्षा हो सके। 

पाकिस्तान में मुहाजिरों पर बड़ा राजकीय दमन तब हुआ, जब वर्ष 1992 में तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ के निर्देश पर कराची के जिन्नाहपुर में मुहाजिरों को ‘असामाजिक तत्व’ बताकर सैन्य अभियान ‘आप्रेशन ब्ल्यू फॉक्स’ चलाया गया। इसी दौरान अल्ताफ ब्रिटेन चले गए, जहां एक दशक बाद उन्हें ब्रितानी नागरिकता भी मिल गई। जब बेनजीर भुट्टो (1993-96) प्रधानमंत्री पद पर रहीं, तब इस सैन्य आप्रेशन में दो साल के भीतर 25,000 से अधिक मुहाजिरों को चुन-चुनकर मौत के घाट उतार दिया गया, जिसमें इतने ही लोग बुरी तरह घायल हो गए। 

पाकिस्तान में मुहाजिरों की स्थिति तो तब ही वीभत्स हो गई थी जब 1977-88 में सैन्य तानाशाह जिया-उल-हक ने मार्शल लॉ थोपकर कानून-ए-इहानते-रसूल लागू कर दिया था, जिसमें इस्लाम पर प्रश्न खड़ा करने और उदारवादी सोच की संभावनाएं समाप्त हो गईं। उसी कालखंड में वर्ष 1986 का कराची के ओरंगी टाऊन स्थित सैक्टर 1-डी और अलीगढ़ बस्ती का नरसंहार-अब भी मुहाजिरों के मानस में जीवित है। 

जनसांख्यकीय परिवर्तन से हिंसक झड़पें और दंगे आम हो गए
जिया के कट्टर इस्लामी कार्यक्रम और अफगानिस्तान-सोवियत युद्ध की पृष्ठभूमि में कराची और सिंध के उन क्षेत्रों के आसपास 40 लाख अफगान शरणार्थी बसा दिए गए, जिसे भारत छोड़कर आए मुस्लिम अपना घर मान चुके थे। इसका असर वहां की पुलिस भर्तियों और अन्य रोजगारों पर भी दिखने लगा। परिणामस्वरूप, इस जनसांख्यकीय परिवर्तन से ङ्क्षहसक झड़पें और दंगे आम हो गए। 

सेना की भारी तैनाती के बीच 14 दिसम्बर 1986 को जब बड़ी संख्या में पश्तून, मुहाजिर बहुल ओरंगी टाऊन सैक्टर 1-डी और अलीगढ़ बस्ती में पहुंचे, तब सुरक्षाबलों ने उन्हें बिना रोक-टोक भीतर जाने दिया। उस समय मात्र दो घंटे के भीतर उन पश्तूनों ने 400 मुहाजिरों को मौत के घाट उतार दिया। इस नरसंहार में जीवित बचे एक पीड़ित के अनुसार, ‘‘हमलावर गोलियां बरसाते और चाकुओं से गला काटते समय अल्लाह-हू-अकबर के नारे ऐसे लगा रहे थे जैसे मानो कि हम काफिर हों।’’ अन्य पीड़ित ने यह भी बताया कि उस समय मौलवी मस्जिदों से हमें मारने के लिए भाषण देते हुए कहते थे, ‘‘मुहाजिरों को मारने पर जन्नत नसीब होगी।’’ इन दोनों घटनाओं में भी मृतक और हत्यारे-दोनों इस्लाम के अनुयायी थे। 

यह सही है कि भारत में जन्मे लाखों मुस्लिमों ने विभाजन के बाद पाकिस्तान को अपना मुल्क माना और उनमें से कुछ कालांतर में वहां के कई उच्च पदों पर भी आसीन हुए। मोहम्मद अली जिन्नाह, लियाकत अली, जिया-उल-हक और परवेज मुशर्रफ आदि इसके सबसे प्रत्यक्ष और बड़े  उदाहरण हैं। यह इसलिए संभव हुआ क्योंकि रक्तरंजित विभाजन के बाद इन जैसे सभी मुस्लिमों ने न केवल भारत से जुड़ी अपनी जड़ों का परित्याग कर दिया, अपितु भारतीय उपमहाद्वीप पर जेहाद करने वाले इस्लामी आक्रांताओं-गौरी, गजनवी और बाबर को अपना राष्ट्रीय नायक मानते हुए ‘काफिर भारत’ (हिंदू) विरोधी नीतियों को मूर्त रूप और उसे मजबूती प्रदान करने का निरंतर काम किया। 

यदि वाकई मजहब के आधार पर किसी देश का निर्माण संभव होता तो क्यों तुर्की, पाकिस्तान, अफगानिस्तान, बंगलादेश, ईरान, ईराक, इंडोनेशिया जैसे विश्व के घोषित 45 इस्लामी देश मजहब के नाम पर एक नहीं हुए? क्यों पाकिस्तान, अफगानिस्तान और ईरान में अक्सर तनाव बना रहता है? यही मापदंड अन्य समाज पर भी लागू होता है। भारत, नेपाल और मॉरीशस जैसे ङ्क्षहदू बहुल देश तो जापान, थाइलैंड, भूटान, मंगोलिया, श्रीलंका, म्यांमार जैसे बौद्ध बहुल राष्ट्र एक देश क्यों नहीं बने? सच तो यह है कि पिछले 72 वर्षों से यदि पाकिस्तान विश्व के मानचित्र पर बना हुआ है, तो उसका कारण इस इस्लामी देश का वह वैचारिक अधिष्ठान है, जिसे ‘काफिर-कुफ्र’ के विषाक्त चिंतन से प्राणवायु मिल रही है, जिसमें इस्लाम पूर्व किसी भी संस्कृति और सभ्यता के प्रति केवल घृणा का भाव है। इसलिए ‘दो राष्ट्र सिद्धांत’ न केवल ढकोसला था, अपितु यह जहरीली ‘काफिर-कुफ्र’ अवधारणा पर मुखर चर्चा को दिशाहीन बनाने का सबसे आसान माध्यम भी बना हुआ है।-बलबीर पुंज
 

IPL
Chennai Super Kings

176/4

18.4

Royal Challengers Bangalore

173/6

20.0

Chennai Super Kings win by 6 wickets

RR 9.57
img title
img title

Be on the top of everything happening around the world.

Try Premium Service.

Subscribe Now!