एक मिले-जुले रूप में याद किया जाएगा ‘2018’

Edited By Pardeep,Updated: 01 Jan, 2019 04:43 AM

will be remembered in a mixed form  2018

बीते वर्ष का स्मृति लेख किन शब्दों में लिखें? शैम्पेन की बोतल खोलें और ढोल-नगाड़े बजाएं? नई आशाओं, सपनों और वायदों के साथ नववर्ष 2019 का स्वागत करें या बारह महीनों में निरंतर पतन की ओर बढ़ते रहने पर शोक व्यक्त करें? वर्ष 2018 को इतिहास में एक...

बीते वर्ष का स्मृति लेख किन शब्दों में लिखें? शैम्पेन की बोतल खोलें और ढोल-नगाड़े बजाएं? नई आशाओं, सपनों और वायदों के साथ नववर्ष 2019 का स्वागत करें या बारह महीनों में निरंतर पतन की ओर बढ़ते रहने पर शोक व्यक्त करें? वर्ष 2018 को इतिहास में एक मिले-जुले वर्ष के रूप में याद किया जाएगा।

राजनीतिक दृष्टि से हमारे नेताओं ने ‘जिसकी लाठी, उसकी भैंस’ की कहावत चरितार्थ की और भारत के योद्धाओं की तरह कार्य किया। अपने वोट बैंक के अनुरूप कार्य करने वाली प्रणाली को चलाया। क्या वर्ष 2018 को एक ऐसे वर्ष के रूप में याद किया जाएगा जिसमें राजनीतिक दलों ने चुनावी जीत की खातिर अपने-अपने वोट बैंक को संतुष्ट करने के लिए कदम उठाए? 

मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ विधानसभा के चुनावों में भाजपा की हार और उससे पहले 11 राज्यों में लोकसभा की 4 और विधानसभा की 11 सीटों में से राजग द्वारा केवल 3 सीटों पर जीत दर्ज करना भाजपा के लिए एक बुरा सपना था। इससे विपक्ष को यह संदेश मिला कि स्थानीय स्तर पर एकजुटता के माध्यम से वे भाजपा को हरा सकते हैं। यही स्थिति कर्नाटक की रही, जहां पर देवेगौड़ा की जद (एस) तथा कांग्रेस ने भाजपा को मात दी। राजग ने अपने 2 सहयोगी दलों आंध्र प्रदेश में तेदेपा और बिहार में आर.एल.एस.पी. को खोया, जबकि शिव सेना, जद (यू), लोजपा और अपना दल आदि सौदेबाजी में बड़ा हिस्सा मांग रहे हैं।

सहानुभूति समाप्त होती जा रही है
वस्तुत: इस स्थिति के लिए भगवा संघ दोषी है। भाजपा को एक कट्टरवादी पार्टी के रूप में देखा जाता है जिस पर सांस्कृतिक असहिष्णुता, अल्पसंख्यकों के उत्पीडऩ और गाय की राजनीति का आरोप है तथा अच्छे दिन लाने के लिए इसे मिली सहानुभूति धीरे-धीरे समाप्त होती जा रही है क्योंकि सरकार अपने वायदे पूरे नहीं कर पाई है। अर्थव्यवस्था का प्रदर्शन आशानुरूप नहीं रहा। ग्रामीण क्षेत्रों में आक्रोश है। शहरी क्षेत्रों में उदासीनता है और युवा रोजगार के अवसर न मिलने के कारण गुस्से में हैं। साथ ही सांप्रदायिक धु्रवीकरण और इसके वोट बैंक में कमी के चलते लगता है इसे चुनावी लाभ नहीं मिल पाएगा। प्रश्न उठता है कि क्या मोदी पर जीत दर्ज की जा सकती है? क्या हिन्दुत्व के एजैंडे का असर समाप्त होने लगा है? क्या प्रशासन विरोधी लहर और विपक्ष की एकजुटता से भाजपा की चुनावी मशीन पर ब्रेक लग रहा है? क्या ये चुनाव एक नमूना थे या ये भविष्य का संकेत हैं? 

निश्चित रूप से 2018 कांग्रेस के राहुल का रहा जो पार्टी अध्यक्ष बने और हिन्दी भाषी क्षेत्रों में भाजपा से तीन राज्यों की सत्ता छीनी। इसके अलावा विपक्षी दलों की एकजुटता से लगने लगा है कि वे चुनावी लाभ के लिए अपनी प्रतिद्वंद्विता भुला सकते हैं। चाहे उत्तर प्रदेश में मायावती की बसपा और अखिलेश की सपा के बुआ-भतीजे हों या कर्नाटक में राहुल की कांग्रेस और देवेगौड़ा की जद (एस) हों तथा तेलंगाना में कांग्रेस और तेदेपा हों। किन्तु क्या यह एकजुटता 2019 में भी बनी रहेगी? सभी दलों के उद्देश्य और एजैंडा अलग-अलग होने से यह कठिन है। क्या इसका नेतृत्व कांग्रेस द्वारा किया जाना चाहिए या क्षेत्रीय महागठबंधन द्वारा? इस राजनीतिक आक्रोश तथा आम आदमी द्वारा रोटी, कपड़ा और मकान के लिए संघर्ष से जूझने के बीच नए वर्ष में गुस्साई जनता बदलाव की आशा कर रही है। आज जनता नए महाराजाओं से खिन्न है। 

स्थिति निराशाजनक
सामाजिक मोर्चे पर भी स्थिति निराशाजनक है। स्वतंत्रता के सात दशकों बाद और शिक्षा, स्वास्थ्य तथा भोजन पर खरबों रुपए खर्च करने के बाद भी देश की 70 प्रतिशत जनसंख्या भूखी, अशिक्षित और बुनियादी चिकित्सा सुविधाओं से वंचित है। उसके पास कोई कौशल नहीं है। देश में जातिवाद और सांप्रदायिकता बढ़ती जा रही है। असहिष्णुता और अपराधीकरण भी बढ़ता जा रहा है। इसका दुखद पहलू यह भी है कि आम आदमी का व्यवस्था के प्रति मोह भंग हो रहा है जो कभी भी आक्रोश का रूप ले सकता है। किसी भी मोहल्ला, जिला या राज्य में चले जाओ, स्थिति वही निराशाजनक है जिसके चलते अधिकाधिक लोग कानून अपने हाथ में ले रहे हैं तथा दंगा, लूट-खसूट और बसों को जलाने की घटनाएं बढ़ रही हैं। देश की राजधानी दिल्ली में रोड रेज में हत्याओं की घटनाएं बढ़ रही हैं। हमारी व्यवस्था इतनी बीमार हो गई है कि चलती रेलगाडिय़ों में महिलाओं के साथ बलात्कार किया जा रहा है और सह-यात्री मूकदर्शक बने हुए हैं जिसके चलते हमारा देश अंधेर नगरी बन गया है। 

गरीब मुसलमानों के पुन: धर्मान्तरण के घर वापसी कार्यक्रम और हिन्दू लड़कियों को फुसलाकर विवाह करने वाले मुस्लिम लड़कों के विरुद्ध लव जेहाद से लेकर मी टू अभियान में देश में यौन उत्पीडऩ, छेड़छाड़ की घटनाओं तथा राजनेताओं, बड़ी हस्तियों, अभिनेताओं, लेखकों, विज्ञापन निर्माताओं, संगीतकारों आदि द्वारा यौन उत्पीडऩ, छेड़छाड़ व हमले के कई प्रकरण सामने आए हैं। जो समाज पुरातनपंथी सोच के साथ जी रहा हो वहां पर महिलाओं की स्वतंत्रता और समानता को अनैतिकता माना जाता है। देश में महिलाओं के प्रति सम्मान का अभाव दर्शाया गया है जिसके चलते वे ऐसे लोगों की शिकार बनती रहती हैं, हालांकि महिलाओं को अधिकार सम्पन्न बनाने की बड़ी-बड़ी बातें की जाती हैं। 

नमो एंड कम्पनी भटक गई
विडम्बना देखिए। लोकसभा द्वारा तीन तलाक विधेयक पारित किया गया और इसमें तीन तलाक की प्रथा को अपराध माना गया है। यह कानून स्थिति में बदलाव लाने वाला है और इसका दूरगामी प्रभाव पड़ेगा। इससे न केवल 21वीं सदी की मुस्लिम महिलाएं मुस्लिम पर्सनल कानून के शिकंजे से मुक्त होंगी अपितु उन्हें काननू के समक्ष समानता मिलेगी और ङ्क्षलग के आधार पर उनके साथ हो रहा भेदभाव दूर होगा। हालांकि विपक्ष का कहना है कि इस कानून के माध्यम से अल्पसंख्यक समुदाय को निशाना बनाया जा रहा है। न केवल समाज में बदलाव की आवश्यकता है अपितु हमारी अर्थव्यवस्था को भी नई दिशा देने की आवश्यकता है। 

नोटबंदी के बाद लगता है नमो एंड कम्पनी भटक गई है। वे दिशाहीन हो गए हैं। वे महंगाई, कृषि संकट, बढ़ती बेरोजगारी जैसी मुख्य समस्याओं का निराकरण नहीं कर पाए हैं। क्या इस वर्षान्त तक सकल घरेलू उत्पाद की वृद्धि दर 7.2-7.5 प्रतिशत रहने से लोगों की समस्याएं दूर हो जाएंगी या महंगाई पर अंकुश लगेगा? यही नहीं, चार वर्ष के अंतराल में रिजर्व बैंक के 2 गवर्नरों और सरकार के 2 मुख्य आर्थिक सलाहकारों ने त्यागपत्र दिया है। किसानों में निराशा व्याप्त है और किसानों द्वारा आत्महत्या की घटनाएं बढ़ रही हैं। हालांकि अब सरकार ने किसानों को राहत पैकेज देने के लिए एक बड़ी योजना तैयार की है। गैलप सर्वे में पाया गया है कि 2014 में 1 से 10 के पैमाने पर भारतीय 4.4 पर थे और अब वे 4 पर आ गए हैं। 14 प्रतिशत लोगों का मानना था कि उन्होंने प्रगति की है, आज उनकी संख्या केवल 4 प्रतिशत रह गई है। 2014 में 2 वक्त की रोटी जुटाने में दिक्कतों का सामना करने वाले लोगों की संख्या ग्रामीण क्षेत्रों में 28 प्रतिशत थी जो आज 41 प्रतिशत है और शहरी क्षेत्रों में 18 प्रतिशत थी जो आज 26 प्रतिशत है। आम आदमी का पेट जुमलों से भरा जा रहा है। 

क्या महागठबंधन विकल्प दे पाएगा
राजनीतिक क्षितिज पर कोई आशा की किरण नहीं दिखाई दे रही है। लोग विकल्प तलाश कर रहे हैं। भाजपा नीत राजग पतनोन्मुखी है किन्तु क्या कांग्रेस या प्रस्तावित महागठबंधन विकल्प उपलब्ध करा पाएगा? यह सच है कि हमें वैसे ही नेता मिले हैं जिनके हम हकदार हैं। किन्तु प्रश्न यह भी उठता है कि क्या ये नेता हमारे लायक हैं? हम अपनी आत्मा को ऐसे छोटे लोगों के पास गिरवी रखते जा रहे हैं। कुल मिलाकर हमारे नेताओं को लोगों का गुस्सा कम करने का प्रयास करना होगा। समय आ गया है कि जब जनता विशेषकर मौन रहने वाली जनता देश की हर कीमत पर सत्ता प्राप्त करने की राजनीति से परे सोचे और गुंडे-बदमाशों को राजनीति से बाहर खदेड़े। 

हमारे राष्ट्रीय जीवन में सत्यनिष्ठा और ईमानदारी लाए जाने की आवश्यकता है। हम नववर्ष 2019 में प्रवेश कर रहे हैं इसलिए हमारे नेताओं को इन खामियों को दूर करने की जिम्मेदारी लेनी होगी। अपने तौर-तरीके बदलने होंगे और शासन की वास्तविक समस्याओं का निराकरण करना होगा। लोग रोजगार, पारदर्शिता और जवाबदेही चाहते हैं। हमें ऐसे नेता चाहिएं जो साहसी और दृढ़विश्वासी हों तथा जो नए भारत का निर्माण कर सकें। कठिन समय में कठिन निर्णय लेने की आवश्यकता है, किन्तु मूल प्रश्न है: कौन विजेता बनेगा? जो विजेता बनेगा क्या वह कठोर कदम उठाने में सक्षम होगा? क्या वह अपनी इच्छाशक्ति का उपयोग कर पाएगा? हां, हम आशा करते हैं कि 2019 में भारत में ऐसा देखने को मिलेगा।-पूनम आई. कौशिश

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