क्या कांग्रेस अध्यक्ष कर्नाटक के चुनाव परिणामों से सबक लेंगे

Edited By Pardeep,Updated: 18 May, 2018 02:22 AM

will congress president take a lesson from karnataka s election results

आखिरकार कर्नाटक में भाजपा के बी.एस. येद्दियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ही ली। दक्षिण के इस राज्य में भाजपा के सरकार बनाने पर संभवत: मामला सर्वोच्च न्यायालय में चले और उसके पक्ष-विपक्ष में सोशल मीडिया सहित अन्य सार्वजनिक मंचों पर चर्चा होगी...

आखिरकार कर्नाटक में भाजपा के बी.एस. येद्दियुरप्पा ने मुख्यमंत्री पद की शपथ ले ही ली। दक्षिण के इस राज्य में भाजपा के सरकार बनाने पर संभवत: मामला सर्वोच्च न्यायालय में चले और उसके पक्ष-विपक्ष में सोशल मीडिया सहित अन्य सार्वजनिक मंचों पर चर्चा होगी परंतु इस संदर्भ में दो बातें स्पष्ट हैं। 

पहली, जनादेश विशुद्ध  रूप से कांग्रेस के खिलाफ  है। शालीनता के साथ जनमत स्वीकार करने के स्थान पर कांग्रेस उस जनादेश को जनता दल (सैकुलर) के साथ मिलकर हड़पने का प्रयास कर रही है। कांग्रेस को ऐसा करने देना लोकतंत्र और संवैधानिक परंपराओं का अपमान होगा। दूसरी, कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी अब भी राजनीति के कच्चे खिलाड़ी हैं और जनता का अटूट विश्वास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी व भाजपा अध्यक्ष अमित शाह में बना हुआ है। साथ ही कांग्रेस में नीतिगत मामलों में स्पष्ट दृष्टि का नितांत अभाव है। 

2014 के पश्चात कालांतर में कांग्रेस को आभास हुआ कि देश में उसकी नीतियों और कार्य-कलापों के कारण पार्टी की छवि हिन्दू विरोधी और भारत विरोधी दल की बन गई है। इसे बदलने के लिए कांग्रेस ने ‘मंदिर दौड़’ अभियान की सार्वजनिक शुरूआत गुजरात विधानसभा चुनाव से की, जो कर्नाटक के विधानसभा चुनाव में भी जारी रही। यहां तक कि पार्टी अध्यक्ष राहुल गांधी ने कर्नाटक चुनाव के बाद कैलाश पर्वत जाने की भी घोषणा कर दी। गत कुछ महीनों से राहुल गांधी मंदिर-मठों में भगवान और साधु-संतों के समक्ष माथा तो टेक रहे हैं, किन्तु उन्हें इसका वांछित फल नहीं मिल रहा। इसका मुख्य कारण राहुल गांधी और कांग्रेस का वह राजनीतिक पाप है, जिसके केन्द्र बिन्दु में मजहब के नाम पर मुसलमानों, ईसाइयों को एकजुट करना और जाति के आधार पर हिन्दुओं को बांटना भी है और इसका दोहन अब भी किया जा रहा है। 

कांग्रेस द्वारा कर्नाटक में लिंगायत और वीरशैव लिंगायतों को धार्मिक अल्पसंख्यक और गैर-हिन्दू का दर्जा देने की अनुशंसा इसका उदाहरण है, जिसे स्वयं लिंगायतों ने ही खारिज कर दिया। यहां भाजपा लिंगायत बाहुल्य 70 सीटों में से 38 पर विजयी हुई है। कांग्रेस की विभाजनकारी राजनीति का एक लंबा और शर्मनाक इतिहास रहा है। एक दशक पूर्व जब मुम्बई 26 नवम्बर 2008 को पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद का शिकार हुआ, तब एक विकृत विमर्श को स्थापित करते हुए भारतीय उर्दू मीडिया के बड़े वर्ग ने हमले के लिए राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और इसराईली एजैंसी मोसाद को जिम्मेदार ठहरा दिया। इसी झूठे सिद्धांत को कांग्रेस ने जोर-शोर से  आगे बढ़ाया। 

दिसम्बर 2010  को कांग्रेसी नेता और मध्यप्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह ने ‘‘26/11: आर.एस.एस. की साजिश’’ नामक पुस्तक का लोकार्पण भी किया और हमले के पीछे संघ का हाथ बता दिया। अब सोचिए यदि कसाब जीवित नहीं पकड़ा जाता, तो कांग्रेस विश्व में भारत, भारतीय सेना और संघ-भाजपा सहित कई राष्ट्रवादी संगठनों को लांछित कर पाकिस्तान को क्लीन चिट दे चुकी होती। यही नहीं, अपने संकीर्ण राजनीतिक स्वार्थ की पूर्ति हेतु ‘‘भगवा आतंकवाद’’ शब्दावली की रचना भी कांग्रेस ने ही की थी, जिसका वास्तविक उद्देश्य हाल के कई खुलासों और अदालती निर्णयों से सार्वजनिक हो चुका है। 

जब 1984 में सिखों के सामूहिक नरसंहार के लिए डॉक्टर मनमोहन सिंह बतौर प्रधानमंत्री माफी मांग चुके हैं तो मनगढ़ंत ‘‘भगवा आतंकवाद’’ के नाम पर हिन्दुओं, भारत की सनातन बहुलतावादी और उसकी कालजयी संस्कृति को दुनिया में कलंकित करने के लिए क्या राहुल गांधी को बतौर कांग्रेस अध्यक्ष देश से माफी नहीं मांगनी चाहिए? राहुल गांधी को अब स्वयं में भावी प्रधानमंत्री दिखने लगा है। अब यदि उनकी इसी अभिलाषा को उनके राजनीतिक अनुभव और सार्वजनिक जीवन के मापदंड पर परखा जाए तो उसका निष्कर्ष देश और कांग्रेस के भविष्य के लिए सुखद तो बिल्कुल भी नजर नहीं आता। आज कांग्रेस की कमान राहुल गांधी के हाथों में है, जो नेहरू-गांधी परिवार की सुरक्षित सीट अमेठी से वर्ष 2004 से लगातार सांसद निर्वाचित हो रहे हैं। डेढ़ दशक के कालखंड में राहुल की राजनीतिक छवि जनता के बीच एक नीतिज्ञानहीन, अपरिपक्व, बड़बोले और अव्यावहारिक व्यक्ति के रूप में स्थापित हुई है। यू.पी.ए. काल में तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपमानित कर उनके निर्णयों को पलटना, वंशवादी परिपाटी को आगे बढ़ाना, व्यक्ति  (नरेंद्र मोदी)  विरोध के नाम पर देशहित-संप्रभुता से समझौता करना और अधिकतर बड़े चुनावों में पराजय (बतौर पार्टी उपाध्यक्ष और अध्यक्ष) राहुल गांधी के सार्वजनिक जीवन की कुल जमा पूंजी है।

अपने पिता और पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की 1991 में निर्मम हत्या और विदेश में शिक्षा अर्जित करने से पूर्व राहुल गांधी 1989 में दिल्ली के प्रतिष्ठित सेंट स्टीफंस कालेज में पढ़ रहे थे। इस दौर में कांग्रेस युवा ईकाई ‘भारतीय युवा कांग्रेस’ की स्थापना और छात्र ईकाई ‘एन.एस.यू.आई.’ का गठन क्रमश: 1970 और 1971 में हो चुका था। क्या तब भी राहुल गांधी ने छात्र राजनीति में कोई दिलचस्पी दिखाई? वर्ष 2004 में बिना किसी जमीनी संघर्ष के सांसद निर्वाचित होने से पूर्व क्या राहुल ने किसी आंदोलन या विरोध-प्रदर्शन में सक्रिय भूमिका निभाई? हमारे देश में छात्र आंदोलन/राजनीति का एक लंबा इतिहास है, जिसके गर्भ से कई नेताओं ने वैचारिक संघर्ष की भट्टी में तपकर अपनी पहचान स्थापित की है। भाजपा, कांग्रेस सहित कई राजनीतिक दल ऐसे नेताओं से अलंकृत हैं। क्या राहुल को इस पंक्ति का नेता माना जा सकता है? 

कर्नाटक विधानसभा चुनाव में कांग्रेस का शीर्ष नेतृत्व चुनावी रैलियों में जनता दल सैकुलर (जदस) को भाजपा की ‘बी’ टीम के रूप से प्रचारित कर रहा था, आज वही लोग उसी दल के साथ मिलकर अपने विरुद्ध आए जनमत को चोर रास्ते से बदलने का प्रयास कर रहे हैं। गोवा विधानसभा चुनाव के संदर्भ में जो तर्क कांग्रेस और उसके बौद्धिक समूह की ओर से दिए जा रहे हैं, जिनके अनुसार ‘भाजपा ने संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रखकर अनैतिक ढंग से गोवा में सरकार बनाई’, वह वास्तव में उनकी हताशा और मानसिक दिवालिएपन का परिचायक है। क्या यह सत्य नहीं कि 40 सदस्यीय गोवा विधानसभा में 17 सीटें प्राप्त करने वाली कांग्रेस, जो बहुमत से केवल 4 सीट दूर थी, ने नतीजे घोषित होने के बाद राज्यपाल के समक्ष सरकार बनाने का दावा ही नहीं किया, जिसका लाभ भाजपा को मिला। 

कर्नाटक के नतीजों से कांग्रेस और वामपंथियों द्वारा स्थापित वे मिथक भी पुन: ध्वस्त हो गए, जिनके आधार पर वे आज तक भाजपा विरोधी गोलबंदी का नेतृत्व कर रहे हैं। पहला, भाजपा केवल हिन्दीभाषी दल है, जिसकी देशव्यापी स्वीकार्यता और दृष्टिकोण नहीं है। दूसरा, भाजपा शहरी पार्टी है, जिसका गांव-देहात और आदिवासी, पिछड़े क्षेत्रों में कोई जनाधार नहीं। तीसरा, मुस्लिम समाज भाजपा का पूर्ण बहिष्कार करता है। और चौथा, भाजपा दलित और पिछड़ा वर्ग विरोधी है। अब यही मनगढ़ंत विमर्श इन राजनीतिक दलों और उनके बौद्धिक विचारकों पर इतना हावी हो चुका है कि वे हर चुनाव में यही मानकर चलते हैं कि इन मिथकों के कारण नतीजे उनके ही पक्ष में आएंगे। अब परिणाम प्रतिकूल आ रहे हैं, तो यही राजनीतिक समूह चुनाव आयोग की निष्पक्षता पर सवाल उठाकर ई.वी.एम. पर दोषारोपण कर रहे हैं। 

दक्षिण भारत में कर्नाटक सहित देश के 21 राज्यों में भाजपा की एकल या गठबंधन की सरकार है, जिसमें गैर-हिन्दी भाषी और आदिवासी क्षेत्रों से लैस पूर्वोत्तर भारत के सात प्रदेश भी शामिल हैं, जहां उसका जनाधार भी है और वह सत्तारूढ़ भी है। गत वर्ष उत्तर प्रदेश चुनाव में मिले भारी मुस्लिम जनसमर्थन के बाद कर्नाटक के मुस्लिम-बहुल क्षेत्र में भी भाजपा का प्रदर्शन उल्लेखनीय रहा है। यहां की मुस्लिम बाहुल्य 33 सीटों में से 15 सीटें भाजपा को मिली हैं, इसके साथ ही प्रदेश की अनुसूचित-जातियों की आरक्षित 64 सीटों में से 22 सीटें इसने जीती हैं। आदिवासी समुदाय का 44, तो पिछड़ों का 52 प्रतिशत मत भी उसे मिला है। भाजपा ने शहरी क्षेत्र से अधिक ग्रामीण इलाकों में बेहतर प्रदर्शन किया है, इसके पीछे किसानों की भूमिका मुख्य रही है। प्रदेश की कुल सीटों में से 166 सीटों पर ग्रामीणों का प्रभाव है, जिसमें 74 सीटें भाजपा को मिली हैं। क्या यह भाजपा को सर्वस्पर्शी और सर्वग्राही नहीं बनाता? त्रिपुरा के बाद कर्नाटक चुनाव के परिणाम से सामाजिक संदेश और भविष्य की संभावनाएं स्पष्ट हैं। जनता कांग्रेस, वामपंथियों सहित अन्य दलों के सैकुलरवादी ढोंग से ऊब और विभाजनकारी राजनीति को नकार चुकी है। जनता राष्ट्रहित, राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता को प्राथमिकता देने के साथ समेकित विकास चाहती है। क्या विपक्ष विशेषकर कांग्रेस इससे सबक लेगा?-बलबीर पुंज

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