क्या विरोधी पार्टियों की नजदीकियां एक ‘ठोस गठबंधन’ का रूप ग्रहण करेंगी

Edited By Pardeep,Updated: 29 May, 2018 03:03 AM

will the close parties of opposition parties form a solid coalition

इतिहास में पुनरावृत्ति करने की प्रवृत्ति है। वर्ष 1971, 1977 और 1989 में विपक्षी दलों ने एकजुट होकर कांग्रेस के विरुद्ध सुदृढ़़ महागठबंधन का निर्माण किया था और अब वर्ष 2018 में 20 विभिन्न विपक्षी दल कांग्रेस के नेतृत्व में एकजुट हो रहे हैं और इस...

इतिहास में पुनरावृत्ति करने की प्रवृत्ति है। वर्ष 1971, 1977 और 1989 में विपक्षी दलों ने एकजुट होकर कांग्रेस के विरुद्ध सुदृढ़़ महागठबंधन का निर्माण किया था और अब वर्ष 2018 में 20 विभिन्न विपक्षी दल कांग्रेस के नेतृत्व में एकजुट हो रहे हैं और इस गठबंधन में ममता की तृणमूल, मायावती की बसपा, अखिलेश की सपा, नायडू की तेदेपा, पवार की राकांपा, लालू का राजद, येचुरी की माकपा आदि सभी भाजपा के विरुद्ध एकजुट हो रहे हैं और सब कह रहे हैं साडे नाल रहोगे तो ऐश करोगे। 

वे हर कीमत पर कुर्सी और सत्ता प्राप्त करना चाहते हैं। इन सब में एकजुटता के लिए समानता कोई भी नहीं है किन्तु वे सभी मोदी को दूसरी बार सत्ता में आने से रोकना चाहते हैं। कर्नाटक के परिणामों ने 2019 के चुनावों का बिगुल बजा दिया है। अपने राजनीतिक अस्तित्व के लिए लड़ रही कांग्रेस अब केवल 3 राज्यों में सत्तारूढ़ है और कर्नाटक में हारने के बावजूद उसने कुमारस्वामी को मुख्यमंत्री बना दिया जबकि गोवा, मणिपुर और मेघालय में संघ ने कांग्रेस को मात दे दी थी।

इस बार कांग्रेस न केवल भाजपा को सत्ता से दूर रखने में सफल रही अपितु राजस्थान, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में अपने कार्यकत्र्ताओं के मनोबल को बढ़ाने में भी सफल रही है। कर्नाटक ने उत्तर प्रदेश में फूलपुर, गोरखपुर और कैराना उपचुनावों में कांग्रेस और सपा-बसपा के बीच चुनावी तालमेल का रास्ता भी साफ किया है। प्रश्न उठता है कि क्या यह 2019 के लोकसभा चुनावों के लिए राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा विरोधी मोर्चे की शुरूआत है? क्या ऐसी नजदीकी एक ठोस गठबंधन का रूप लेगी? क्या इस शक्ति प्रदर्शन से भाजपा के चुनावी भविष्य पर प्रभाव पड़ेगा? विपक्षी दलों में एकता का सूत्र केवल मोदी के समक्ष राजनीतिक आधार खोने का भय है। 

गत 4 वर्षों में प्रधानमंत्री की लोकप्रियता कम नहीं हुई है और अमित शाह ने भाजपा को एक चुनावी मशीन बनाया है और इससे उसे 21 राज्यों में चुनावी लाभ मिला है। इनमें त्रिपुरा जैसा राज्य भी शामिल है जहां पर पार्टी का जनाधार बहुत अधिक नहीं था, इसीलिए विपक्षी दल अपनी पुरानी प्रतिद्वंद्विता पर पुनॢवचार कर रहे हैं और भाजपा का मिलकर मुकाबला करने के लिए अपने मतभेदों को दूर कर रहे हैं। प्रश्न यह उठता है कि क्या कांग्रेस इस प्रयोग में क्षेत्रीय दलों के समक्ष गौण भूमिका निभाने के लिए तैयार है ताकि 2019 में नमो की भाजपा के विरुद्ध महागठबंधन का निर्माण किया जा सके। 

समस्या यह है कि कांग्रेस समझती है कि वह शासन करने वाली स्वाभाविक पार्टी है। राहुल को पार्टी की अंदरूनी कमजोरियों को समझना होगा और भाजपा का मुकाबला करने के लिए क्षेत्रीय क्षत्रपों को रियायत देनी होगी। राकांपा के पवार ने इस बात की आशाएं जगाईं कि विपक्षी एकता असंभव नहीं है। 2019 के चुनावों में सफाया होने के डर से बसपा की मायावती और सपा के अखिलेश हाथ मिला रहे हैं। हालांकि ये क्षेत्रीय क्षत्रप इस नए भाईचारे से खुश हैं किन्तु उन्हें एक व्यावहारिक गठबंधन बनाने के लिए अनेक अड़चनों को पार करना पड़ेगा। 

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा माकपा के सीताराम येचुरी के साथ मंच सांझा करने से विश्वास पैदा नहीं होता क्योंकि इन दोनों दलों के बीच छत्तीस का आंकड़ा है और दोनों का राजनीतिक एजैंडा भी अलग-अलग है। आंध्र प्रदेश में कांग्रेस और तेदेपा चिर प्रतिद्वंद्वी हैं। इसके अलावा गठबंधन के अनेक बुजुर्ग नेता प्रधानमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा पाले हुए हैं जिनमें राकांपा के पवार और सपा के मुलायम अपना दावा ठोकने के लिए तैयार बैठे हैं और 2019 के चुनावों में उनकी पार्टियों के प्रदर्शन पर उनका दावा निर्भर करेगा। इसी तरह अगर ममता, नायडू और मायावती के पक्ष में आंकड़ा गया तो वे भी अपना दावा ठोक सकते हैं? 

किन्तु समस्या यह है कि उनका प्रभाव क्षेत्र बहुत सीमित है। इसके अलावा विचारधारा, नीतियों, मूल्यों और नैतिकता को ताक पर रखकर दुश्मन से दोस्त बने नेता और दल क्या दोस्त बने रह सकेंगे? अखिलेश और मायावती आज एक साथ हैं किन्तु क्या वे उत्तर प्रदेश की 80 लोकसभा सीटों के लिए एक साथ रह पाएंगे? क्या दक्षिण में अन्नाद्रमुक और द्रमुक ऐसा कर पाएंगे? विपक्षी दलों की एकजुटता में दरार भी दिखाई देने लगी है। ममता गांधी परिवार से अपनी दूरी बनाए हुई हैं क्योंकि उन्होंने और तेलंगाना राष्ट्र समिति के चन्द्रशेखर राव ने गैर-कांग्रेस, गैर-भाजपा दलों के संघीय मोर्चे के गठन का विचार दिया है। यह बताता है कि क्षेत्रीय क्षत्रप भाजपा विरोधी मोर्चे का नेतृत्व करने के कांग्रेस के दावे को स्वीकार नहीं करते हैं। 

नि:संदेह कर्नाटक की हार भाजपा के लिए एक चेतावनी रही है क्योंकि उसे महसूस हो गया है कि 2019 की जंग आसान नहीं रहेगी, इसीलिए वह अपनी रणनीति को ठोस बना रही है और नए सहयोगियों की तलाश कर रही है, इसीलिए उन्होंने करुणानिधि, पवार और जगनमोहन रैड्डी को साधने की कोशिश की है। साथ ही पार्टी शिव सेना, जद (एस) और अकाली दल को कुछ स्थान देने पर विचार कर रही है। पार्टियों की संख्या बढऩे से लोकतंत्र के समक्ष कठिनाइयां आ रही हैं जिसके चलते भाजपा के रथ पर रोक लगाने का एकमात्र उपाय सभी का चुनावी गठबंधन है किन्तु सपने वास्तविक नहीं होते हैं। 

अक्सर यह देखा गया है कि जब पार्टियां सत्ता प्राप्त करने के गलत कारणों से अलग विचारधारा वाले क्षेत्रीय दलों के साथ गठबंधन करती हैं तो इसके परिणाम गलत ही आते हैं। इतिहास बताता है कि ऐसे गठबंधन दीर्घकालिक नहीं रहे हैं क्योंकि उनके नेताओं की प्रतिस्पर्धी व्यक्तिगत महत्वाकांक्षाएं होती हैं। बेंगलूर के मंच ने स्पष्ट कर दिया है कि विपक्ष को प्रयास करने से चुनौतियां नहीं रोक सकती हैं, इसलिए आगामी विधानसभा चुनावों में इस प्रयोग की सफलता भाजपा के विरुद्ध गठबंधन बनाने की दिशा में निर्णायक साबित होगी। 

देखना यह है कि भाजपा विरोधी विपक्ष में कितने समय तक एकजुटता बनी रह सकती है और भाजपा का मुकाबला करने के लिए इस विपक्ष का चेहरा कौन बनता है और 2019 में भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए कौन त्याग करता है। लोकसभा के गणित को देखते हुए अभी भी ये संकेत मिलते हैं कि 2019 के चुनावों में विपक्षी दलों के एकजुट होने के बावजूद भाजपा अकेली सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरेगी क्योंकि विपक्षी दल हो सकता है कि आपस में अपने वोट बैंक को एक-दूसरे को अंतरित न कर पाएं। विपक्षी दलों के एकजुट होने से मोदी पीड़ित होने का मुद्दा भी उठा सकते हैं। 

गुजरात में उनकी यह रणनीति सफल रही है। भाजपा यह कह सकती है कि हर कोई नमो का विरोध कर रहा है क्योंकि वह गरीबों के लिए लड़ रहे हैं और यह धु्रवीकरण पार्टी के पक्ष में जा सकता है। कुल मिलाकर विपक्षी दलों को दिखावे से परे जाना होगा। उन्हें भाजपा की उत्कृष्ट चुनावी रणनीति का सामना करने के लिए घाघ राजनीतिक कदम उठाने होंगे और ठोस चुनाव प्रबंधन करना होगा। यह सच है कि संख्या बताएगी कि भारत की राजगद्दी पर कौन बैठेगा किन्तु साथ ही उन्हें इस कटु सच्चाई का सामना भी करना पड़ेगा कि शासन और राष्ट्रीय हितों को ‘गरीब की जोरू सबकी भाभी’ के स्तर तक नहीं लाया जा सकता।-पूनम आई. कौशिश

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