दिल्ली में यम का ‘इस्तीफा’

Edited By ,Updated: 12 Mar, 2020 04:07 AM

yams resignation in delhi

दिल्ली के दंगों का दृश्य विदारक है। मौत का अमानवीय तांडव देखकर यम भी इस्तीफा दे देंगे। हिंदू-मुसलमानों के मासूम बच्चे अनाथ हो गए। हम अनाथों की नई दुनिया बना रहे हैं। मुदस्सर खान के बच्चे का फोटो दुनिया भर में प्रकाशित हुआ। वह...

दिल्ली के दंगों का दृश्य विदारक है। मौत का अमानवीय तांडव देखकर यम भी इस्तीफा दे देंगे। हिंदू-मुसलमानों के मासूम बच्चे अनाथ हो गए। हम अनाथों की नई दुनिया बना रहे हैं। मुदस्सर खान के बच्चे का फोटो दुनिया भर में प्रकाशित हुआ। वह फोटो कलेजा चीरने वाला है। 

कहीं मंदिरों में दीया नहीं
कहीं मस्जिदों में दुआ नहीं
मेरे शहर में हैं खुदा बहुत
मगर आदमी का पता नहीं 

यह सच्चाई एक बार फिर दिल्ली के दंगों में दिखी। जब जातीय और धार्मिक दंगे होते हैं तब इंसानियत दिखाने वाले कई संगठनों द्वारा इसे भुनाया जाता है। इसके लिए ‘भाईचारा’ घिसा-पिटा शब्द प्रचलित है। मानवता खो चुकी राजनीति, उस राजनीति से निर्माण होने वाला निघृण धार्मिक उन्माद और उस उन्माद से पैदा किया गया नया राष्ट्रवाद देश के बचे-खुचे इंसानों को मार रहा है। दिल्ली के दंगों में 50 लोग मारे गए (वास्तविक आंकड़ा 100 से अधिक होगा), 500 से ज्यादा लोग घायल हुए, सैंकड़ों लोगों का परिवार, रोजी-रोटी खाक हो गई। उस खाक से निकलकर खड़े हुए बेसहारा बच्चे अपना भूतकाल और भविष्यकाल खोज रहे हैं। यह दृश्य राजनीतिज्ञों को दुख नहीं देता होगा तो उन्हें खुद को यम का वारिस घोषित कर देना चाहिए। दिल्ली में खून-खराबे वाला मौत का तांडव देखकर यम भी विचलित हो गया होता और उसने अपने पद से इस्तीफा दे दिया होता। देश का दृश्य भयानक है। 

सिर्फ आंकड़े आए
दंगे, अकाल, बाढ़ में कितने लोग मर गए, इसके आंकड़े आते हैं लेकिन इन सब में कितने बच्चे अनाथ व लावारिस हुए, इसके आंकड़े आने बाकी हैं। दिल्ली में दंगों के बाद एक निरपराध बच्चे की फोटो दुनिया भर में प्रकाशित हुई। बाप की लाश के पास खड़ा होकर यह बच्चा क्रंदन कर रहा है। यह फोटो देखकर भी कोई हिंदू-मुसलमान ऐसा खेल करता रहेगा तो इंसान की हैसियत से जीने के लायक नहीं होगा। ‘शाहीनबाग’ में आंदोलन विवाद का मुद्दा बन सकता है। किसी ने वहां भड़काऊ भाषण दिया, किसी ने आग लगाई। ये सब कौन लोग थे, जिन्होंने 50 से ज्यादा लोगों के प्राण ले लिए? ऐसा सवाल कई निरपराध बच्चे और उनकी मां की आंखों से बहने वाले आंसू उठा रहे हैं। 

ऐसा ही सवाल अंकित शर्मा की मां, राहुल सोलंकी के पिता और मुदस्सर खान के कोमल बच्चे की आंखों से न रुकने वाले आंसू पूछ रहे हैं। खून का रंग धर्म के अनुसार नहीं होता है। उसी तरह आंसुओं का भी नहीं होता है। उस निरपराध बच्चे का फोटो मुझे आज भी बेचैन करता है। कौन है यह बच्चा? दिल्ली के मुस्तफाबाद का मुदस्सर खान अब दुनिया छोड़कर चला गया। जब उसका शव घर पहुंचा तब पूरा इलाका आक्रोश व्यक्त कर रहा था। उसके जनाजे का ऐसा दृश्य कैमरे ने दर्ज किया है। उसमें से सैंकड़ों सवाल मधुमक्खी की तरह डंस रहे हैं। 

यह तस्वीर हर जीवित इंसान के बच्चों को दहला देने वाली थी। यहां जीवित रहने के मायने क्या हैं? सिर्फ पलकों का झपकना और सांसों का चलना, होंठों की हलचल का होना ही जीवित रहने के लक्षण नहीं हैं। हृदय में मानवता का दीपक जलते रहना ही जीवंतता है। यह मानवता मतलब ‘इंसानियत’ उस दिन खत्म हो गई जब आठ-दस वर्ष का एक लड़का अपने निस्तेज पड़े पिता को देखकर रो रहा था। उसे उसके बाप का जिस उम्र में साथ चाहिए था, उस उम्र में उसके पिता दुनिया से विदा हो गए। राजनीतिज्ञों ने ये जो द्वेष का जहर मिलाया है, इससे उसके पिता का साया उसके सिर से उठ गया। मुदस्सर खान के उस निरपराध बच्चे के आंसू और आक्रोश से दिल्ली के दंगों का वास्तविक दृश्य दुनिया के सामने आया। 

दुनिया का विनाश
हिंदुत्व, धर्मनिरपेक्ष, हिंदू-मुसलमान, क्रिश्चियन-मुसलमान के विवाद से दुनिया विनाश की दहलीज पर पहुंच गई है। देवता और धर्म के नाम पर ‘बचाओ! बचाओ! का आक्रोश किया जाता है। मदद के लिए न ईश्वर दौड़ते हैं, न अल्लाह दौड़ते हैं, न येसु दौड़ते हैं। इंसान को खुद की हिम्मत पर जीना पड़़ता है। ‘सरकार’ नामक माई-बाप भी ऐसे संकटों के समय दरवाजे, खिड़कियां बंद करके बैठ जाते हैं। दंगे खत्म होने के बाद अब आंकड़े सामने आ रहे हैं। कितने हिंदू और कितने मुसलमान मरे? मुदस्सर खान के बेटे का फोटो जिस तरह से रुलाता है, उसी तरह का एक और फोटो प्रसारित हुआ। एक स्कूली बच्चा अपने खाक हुए घर की राख से स्कूल की जली हुई पुस्तकें बाहर निकाल रहा है। ये पुस्तकें उर्दू में न होकर ङ्क्षहदी में हैं। उस राख में तो हिंदू-मुसलमान मत ढूंढो, लेकिन ऐसी खोज जारी ही है। यह राख मतलब राजनीतिज्ञ की रोटी-रोटी बन गई है। 

जग क्यों जगमगाया?
थॉमस एल्वा एडीसन ने धर्म को नहीं माना। ईश्वर, अल्लाह, गॉड उनकी निजी गणना में भी नहीं थे। दुनिया में कई धर्म हैं। उतनी ही श्रद्धा और अंधश्रद्धा भी है। उन सभी का घर एडिसन ने जगमगा दिया। लोगों के घर और जीवन से अंधकार दूर किया इसलिए ही ईश्वर, खुदा, गॉड की शक्ति से ज्यादा आज दुनिया ‘इलैक्ट्रिसिटी’ पर विश्वास करती है। हम सिर्फ देश की राजधानी दिल्ली में ‘हिंदू-मुसलमान’ का खेल खेलते रहे। धर्म इंसान को अन्न नहीं देता, उसे परिश्रम से अर्जित करना पड़ता है। चीन एक महाशक्ति है। वहां ‘कोरोना’ वायरस ने आतंक मचा रखा है। चीन आज डर से छटपटा रहा है। उनकी श्रद्धा और ईश्वर भी उन्हें बचा नहीं सकता। दुनिया में असंख्य रोग हैं, दुर्लभ बीमारियां हैं। ये सभी लोग अल्लाह, ईश्वर, गॉड का जप करते रहते हैं। लेकिन अंतत: उन्हें फ्लेमिंग द्वारा खोजी गई ‘एंटी बायटिक’ दवाइयों को पीकर ही ठीक होना पड़ता है। परंतु हम धर्म के नाम पर एक-दूसरे की हत्या कर रहे हैं। 

मुदस्सर खान को न अल्लाह ने बचाया, न अंकित शर्मा को भगवान ने बचाया। मंदिर, मस्जिद, चर्च की खुमारी से बाहर निकलो और स्कूल-कॉलेज की दिशा में आगे बढ़ो, ऐसा कहने वाला अगुवा पैदा ही नहीं हुआ है। दिल्ली दंगों ने बच्चों को अनाथ कर दिया, उसी तरह महाराष्ट्र में बेमौसम की बारिश के कारण और कर्ज के बोझ के कारण ‘बाप’ आत्महत्या करता है और बच्चे अनाथ हो जाते हैं। मुदस्सर खान दंगे में मरा, उसी तरह पाथर्डी में तीसरी कक्षा में पढऩे वाले बच्चे प्रशांत बटुले ने अपना बाप गंवाया। किसानों का दुख, कर्ज का पहाड़ असहनीय हो जाने से मल्हारी बाबा साहिब बटुले ने जीवन लीला समाप्त कर ली। इसके दो घंटे पहले उनके बेटे प्रशांत ने स्कूल में एक कविता प्रस्तुत की, ‘अरे किसानो आत्महत्या न करो!’ जिस पिता के लिए यह कविता प्रस्तुत की, उसी पिता ने दो घंटे बाद आत्महत्या कर ली। मुदस्सर खान और पाथर्डी के मल्हारी बाबा साहिब बटुले ये दोनों ‘खून’ हैं। उनके खून से उनके निरपराध बच्चों के भविष्य की हत्या हो गई। 

दोनों को ही अनाथ होने से सरकार बचा नहीं सकी। दुनिया भर में यही हो रहा है। अनाथों की नई दुनिया हम ही बसा रहे हैं। सीरिया, ईराक, अफगानिस्तान ऐसे कई राष्ट्रों में युद्ध ज्वर में बमों के धमाके हो ही रहे हैं। इसमें मासूम, कोमल बच्चे अनाथ हो रहे हैं। ऐसे अनाथ बच्चों की तस्वीर देखकर हम व्यथित होते हैं। ये तो दूर की बात है। लेकिन हमारी चौखट पर मुदस्सर खान और मल्हारी बाबा साहिब बटुले के बेटे बेसहारा हो गए, उनका दुख कोई समझेगा क्या?-संजय राऊत

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