अवसाद, तनाव और निराशा की शिकार होती युवा पीढ़ी

Edited By ,Updated: 23 Feb, 2019 03:43 AM

young generation suffering from stress and disappointment

अक्सर यह सुनने और देखने को मिलता है कि हमारा युवा वर्ग डिप्रैशन में रहता है, हर वक्त तनाव में जीता है और निराशा का दामन थाम लेता है। गनीमत है कि यह हकीकत अभी मु_ी भर अर्थात बहुत थोड़े से युवाओं तक ही सीमित है लेकिन इसे दरकिनार नहीं किया जा सकता...

अक्सर यह सुनने और देखने को मिलता है कि हमारा युवा वर्ग डिप्रैशन में रहता है, हर वक्त तनाव में जीता है और निराशा का दामन थाम लेता है। गनीमत है कि यह हकीकत अभी मुट्ठी भर अर्थात बहुत थोड़े से युवाओं तक ही सीमित है लेकिन इसे दरकिनार नहीं किया जा सकता क्योंकि किसी भी बड़ी बीमारी की शुरूआत छोटी-सी लापरवाही से ही होती है और अगर सही उपचार न हो तो परिणाम खतरनाक भी हो सकते हैं। 

असल में अवसाद या डिप्रैशन अनेक भावनाओं को जन्म देता है जैसे कुंठा, आक्रोश, क्रोध या इस तरह की सोच जिसमें व्यक्ति या तो अपने को बहुत छोटा समझने लगता है यानी हीन भावना का शिकार हो जाता है या फिर इसके विपरीत अपने को सबसे ऊपर मानने लगता है यानी सुपीरियर काम्प्लैक्स का शिकार हो जाता है। दोनों ही हालात में उसके जीवन की डोर निराशा और तनाव के हाथ में आ जाती है और वह उनके वश में इस तरह आ जाता है कि उसके सोचने-समझने और सही निर्णय लेने की क्षमता समाप्त होने लगती है। 

यही वह समय है जब उसे मार्गदर्शन और चिकित्सा की जरूरत होती है। अगर उसका उपचार समय रहते हो गया तब तो ठीक वरना हालात इतने बिगड़ सकते हैं कि वह हिंसक हो सकता है, अपनी जान स्वयं लेने की कोशिश कर सकता है और एक तरह की ऐसी मानसिक अवस्था आ सकती है जिसे हम सामान्य भाषा में विक्षिप्त या पागलपन का शिकार होना कह सकते हैं। 

आईना और अपनी छवि 
युवाओं को कुंठित और हताश होने की हालत में उनका उपचार करने और उन्हें उससे बाहर निकाल कर सामान्य बनाने के काम का बीड़ा एक युवा ने उठाया है और ‘आईना’ नाम से अपनी संस्था शुरू की है जो युवाओं को मनोवैज्ञानिक चिकित्सा के जरिए डिप्रैशन से बाहर निकालने का काम कर रही है ताकि वे स्वयं को पहचान सकें और उनका व्यवहार वैसा हो जाए जैसा उनकी उम्र के एक सामान्य युवा का होता है। 

आइए आपको उनसे मिलवाते हैं। इनका नाम अकसीर सोढी है। पिता हरपाल सिंह वायुसेना में उच्च पद पर हैं और मां नीरजा बायपोलर अध्यापन और लेखन से जुड़ी हैं। वह स्वयं बायोपोलर नामक मानसिक बीमारी से पीड़ित रही हैं जिससे बाहर निकलने में उन्हें सही चिकित्सा मिलने के बावजूद 5 वर्ष लग गए। यहीं से उनके मन में यह बात आई कि जो उन्होंने भुगता है वह उनके जैसे युवाओं को न भोगना पड़े।

अकसीर का मानना है कि युवाओं में डिप्रैशन की शुरूआत तब होती है जब वे अपनी बात किसी से कह नहीं पाते और अपने अंदर ही घुटन पाल लेते हैं। अगर कोई ऐसा हो जिससे वे अपने मन की बात खुलकर कह सकें और उन्हें सही सलाह और चिकित्सा वक्त पर मिल जाए तो वे बहुत जल्दी सामान्य युवा की तरह फिर से व्यवहार करना शुरू कर सकते हैं। वैसे यह भी सत्य है कि डिप्रैशन का दौर प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में एक बार तो अवश्य ही आता है और यदि चिकित्सा न हो तो यह बार-बार हो सकता है। 

बीमारी का मूल कारण 
उपचार की तरफ बढऩे से पहले यह समझना जरूरी है कि किसी भी मानसिक या मनोवैज्ञानिक परेशानी की शुरूआत कब और कैसे होती है। इसके लिए जन्म से लेकर शैशव काल यानी स्कूल जाने की आयु तक जाना होगा। इस समय न केवल बच्चा अपनी मर्जी का मालिक होता है बल्कि माता-पिता और परिवार के लोग उसकी हां में हां मिलाते हैं तथा उसके सभी प्रश्नों के उत्तर भी देते हैं। मतलब यह कि उसकी बात सुनते और अपनी सुनाते हैं। 

स्कूल में उसे सिर्फ अध्यापकों और माता-पिता की बात सुननी और माननी होती है। वह अपनी बात कहना चाहता है लेकिन ज्यादातर न केवल उसकी बात अनसुनी कर दी जाती है बल्कि झिड़की और फटकार से लेकर तमाचे भी उसे जड़ दिए जाते हैं। उसे लगता है कि कोई उसकी बात सुनने और समझने वाला ही नहीं है। इसके साथ ही कोई उसे चाहता नहीं, प्यार नहीं करता और फिर वह या तो अंदर ही अंदर घुटता रहता है अथवा फिर बात-बात में गुस्सा करने लगता है। स्कूल की देहरी पार करने, मतलब यौवन की दहलीज तक पहुंचने तक वह अकेलेपन का सामना करने लगता  है जिससे निपटने के लिए वह आधुनिक साधनों जैसे मोबाइल फोन, सोशल मीडिया, पोर्नोग्राफी से लेकर सैक्स तक में रुचि लेने लगता है जो उसकी उम्र के लिए सही नहीं होता। 

वह प्यार के चक्कर में भी पड़ सकता है जो ज्यादातर नकली और ठगी होने जैसा होता है और फिर वह मानसिक तनाव और कुंठा से घिरने लगता है। कॉलेज या उच्च संस्थान में जाकर भी उसकी बात जब नहीं सुनी जाती तो वह और भी अधिक घुटन का शिकार हो जाता है। ऐसी अवस्था में उसका व्यवहार ङ्क्षहसक और आत्मघाती प्रवृत्ति का होता जाता है। इसका नतीजा बहुत भयावह हो सकता है और तब परिवार यह कहता पाया जाता है कि अगर हम उसकी बात सुनते और उसके सवालों के जवाब देते तो उसका जीवन बच सकता था या वह जिंदगी के अंधेरों से बाहर निकल सकता था।

सुनने और सुनाने की चिकित्सा 
आईना में अकसीर ने कुछ ऐसे विशेष कोर्स तैयार किए हैं जो अलग-अलग अवधि के हैं। इनके माध्यम से न केवल युवाओं को एक तरह की संजीवनी मिल रही है बल्कि ऐसे ट्रेनर भी तैयार हो रहे हैं जो डिप्रैशन के शिकार युवकों और युवतियों के ग्रुप बनाकर उन्हें सही रास्ता दिखा सकें। आईना की वैबसाइट पर युवाओं की जो समस्याएं आती हैं उनमें माता-पिता से अनबन, अध्यापकों के ठीक व्यवहार न करने से उपजी पीड़ा से लेकर पुरुष या महिला मित्र के साथ बिगड़े संबंधों और अपनी रुचि के अनुसार काम न मिलने से हुई निराशा तथा कुंठा से बाहर निकलने की तरकीब मिलने की उम्मीद अधिक होती है। 

जब कोई सुनने वाला मिल जाए तो सुनाने वाले को अपने अंदर की नकारात्मकता समाप्त होती हुई लगती है और उसके सोचने का नजरिया सकारात्मक दिशा में बदलने लगता है। अपनी जिज्ञासा का समाधान होने और प्रश्नों के उत्तर मिलने से युवा लड़के और लड़कियां एक नई ताजगी से भर जाते हैं। उनके अंदर ऊर्जा का संचार होने लगता है और वे जो भी काम या व्यवसाय करते हों उसमें उन्हें सफलता मिलने लगती है। 

वक्त की जरूरत
आज के दौर में जब परिवार सीमित हो रहे हैं, एक छोटे दायरे में सिमट रहे हैं, बढ़ती आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए घर में सबके लिए कमा कर लाना जरूरी हो गया है और उस पर तुर्रा यह कि फोन और इंटरनैट से ही चिपके रहना जीवनशैली बन जाए तो फिर भीड़ में भी अकेलेपन का एहसास होना लाजिमी है। 

डिप्रैशन या निराश होने की शुरूआत यहीं से होती है। इससे निजात पाने का रास्ता यही है कि आपस में बातचीत करना, मिल बैठकर हंसना-हंसाना और अपने मन की बात उनसे बांटना जो आपको जानते और समझते हों तथा एक ऐसा माहौल अपने आसपास बनाना जिसमें दु:ख से ज्यादा सुख महसूस हो, गम की बरसात के बजाय खुशी की फुहार हो और कांटों की परवाह न करते हुए फूल की सुगंध का विस्तार होता हो, यही वक्त की जरूरत है और ‘आईना’ यही कर रहा है।-पूरन चंद सरीन

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