इस तरह व्हाइट में बदली गई 2,700 करोड़ रुपए की ब्लैक मनी!

Edited By ,Updated: 30 Jan, 2015 12:19 PM

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डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस (डीआरआई) ने ब्लैक मनी किस तरह व्हाइट में बदली जाती है इसका पर्दाफाश किया। डीआरआई को जानकारी मिली कि इस वित्त वर्ष में सिर्फ 10 महीनों की अवधि में 2,700 करोड़ रुपए की कीमत के हाथ से बने कार्पेट के

नई दिल्ली: डायरेक्टोरेट ऑफ रेवेन्यू इंटेलिजेंस (डीआरआई) ने ब्लैक मनी किस तरह व्हाइट में बदली जाती है इसका पर्दाफाश किया। डीआरआई को जानकारी मिली कि इस वित्त वर्ष में सिर्फ 10 महीनों की अवधि में 2,700 करोड़ रुपए की कीमत के हाथ से बने कार्पेट के 500 से अधिक कंटेनरों को दिल्ली के सिर्फ दो पोट्र्स पटपडग़ंज आईसीडी और तुगलकाबाद आईसीडी से मुंबई के रास्ते दुबई और मलयेशिया भेजा गया। लेकिन, जब डीआरआई की रेड पड़ी तो पता चला कि महंगे हाथ से बने कारपेट के स्थान पर सस्ते रजाई के कवर कंटेनर में भरे गए हैं।

 

दरअसल, डीआरआई के अधिकारियों का माथा ठनकने की असल वजह इतने भारी पैमाने पर हाथ से बने कारपेट का एक्सपोर्ट था, क्योंकि भारत से कभी भी इस पैमाने पर दुबई में हैंडमेड कार्पेट एक्सपोर्ट नहीं किए गए हैं और न ही कभी दुबई से कभी इस प्रकार का इंपोर्ट किया गया है। पिछले 5 सालों में हाथ से निर्मित कार्पेट का कुल एक्सपोर्ट 4,000-5,000 करोड़ रुपए के बीच में रहा है। उसमें से भी पूरे एक्सपोट्र्स का अकेले 60 फीसदी अमेरिका और यूरोप में जाता रहा है। जहां तक दुबई की बात है तो यह भारत से कार्पेट आयात करने वाले टॉप 20 देश की श्रेणी में भी नहीं है।

 

इन सभी तथ्यों से डीआरआई के अधिकारियों ने पिछले साल अक्टूबर में विभिन्न पोट्र्स पर करीब 50 कंटेनरों पर छापा मारा। बताया गया था कि इन कंटेनरों में मानवनिर्मित फाइबर से बनी फर्श को छिपाने वाली चीज यानी कार्पेट है। लेकिन, छापे के दौरान पता चला कि असल प्रॉडक्ट रजाई का कवर था। डीआरआई को पता चला है कि इस अवैध कारनामे में दिल्ली के पोट्र्स स्थित कुछ कस्टम अधिकारियों की भी मिलीभगत है क्योंकि उनकी मदद के बगैर इस तरह का काम मुमकिन नहीं है।

 

बता दें कि इस मामले में रजाई के कवर को कार्पेट बताया गया था। रजाई के कवर की कीमत 160 रुपए है, लेकिन इसे कार्पेट दिखाकर आसानी से इसका रेट एक्सपोट्र्स में 7,500 रुपए दिखा दिया गया। डीआरआई के मुताबिक इसी तरह से वे कम कीमत के सामान को महंगी वस्तु दिखाकर एक्सपोट्र्स करते रहे हैं। फिर बिल की रकम के बराबर का भुगतान विदेश से मंगवा लेते थे। जिसे वे अपने सामान को बेचने पर प्राप्त रकम दिखाते थे वो असल में काला धन होता था। 

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