Edited By Punjab Kesari,Updated: 16 Feb, 2018 03:38 PM
सरकार पर 36 राफेल लड़ाकू विमानों के लिए भारत और फ्रांस के बीच हुए सौदे में घोटाले के लगातार आरोप लगते रहे हैं। सौदे की राशि और भारत सरकार के दावों पर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। बता दें कि सरकार पर यह भी आरोप लगाया जा रहा है कि पीएम ने पैरिस में...
नई दिल्लीः सरकार पर 36 राफेल लड़ाकू विमानों के लिए भारत और फ्रांस के बीच हुए सौदे में घोटाले के लगातार आरोप लगते रहे हैं। सौदे की राशि और भारत सरकार के दावों पर कई तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं। बता दें कि सरकार पर यह भी आरोप लगाया जा रहा है कि पीएम ने पैरिस में राफेल विमान खरीदने की घोषणा से पहले कैबिनेट कमिटी ऑफ सिक्यॉरिटी की अनुमति नहीं ली थी।
क्यों किया इतना महंगा सौदा
राफेल सौदे को लेकर पहला सवाल यह उठता है कि यह सौदा महंगा है और इतने महंगे सौदे की क्या जरूरत थी? इसी सिलसिले में यह भी कहा जा रहा है कि आरंभ में तो 126 राफेल विमानों की कीमत 8.5 बिलियन यूरो ही थी। जब 2013 में राफेल को खरीदारी के लिए चुना गया तो कीमत 12.57 बिलियन यूरो हो गई और जनवरी 2014 में यह 300 प्रतिशत बढ़कर 25.5 बिलियन यूरो हो गई।
रिलांयस को ही क्यों चुना
दूसरा सवाल यह भी उठता है कि आखिर रिलांयस को ही क्यों चुना गया और उसके बजाय पब्लिक सेक्टर की किसी कंपनी जैसे एचएएल आदि को क्यों नहीं चुना गया? यहां यह याद रखना आवश्यक है कि दासौ किसको चुने, यह भारत सरकार तय नहीं सकती थी। यह भी ध्यान रखना चाहिए कि दासौ या फिर फ्रांस सरकार कोई भी सौदा केवल आपकी ही शर्तों पर नहीं करेगी और वह भी तब जब आप एक तरह से मजबूरी में उनसे विमान खरीदने जा रहे हों। यह भारत की एक तरह से मजबूरी ही थी कि उसे लड़ाकू विमान जल्द से जल्द चाहिए थे। यह भी समझने की जरूरत है कि फ्रांस ने शायद रिलायंस को इसलिए चुना, क्योंकि अनिल अंबानी की रिलायंस डिफेंस ने नौसेना के क्षेत्र में सशक्त उपस्थिति दर्ज कराई है।
यूरो-फाइटर को क्यों नहीं चुना
तीसरा प्रश्न यह पूछा जा रहा है कि मोदी सरकार ने राफेल के बजाय यूरो-फाइटर को क्यों नहीं चुना, जिसे वायुसेना ने दूसरी वरीयता में रखा था? इसके अनेक कारण हैं। जहां राफेल के लिए सिर्फ फ्रांस के साथ सौदेबाजी करनी थी वहीं यूरो फाइटर के लिए अनेक देशों से बात करके सौदे को अंतिम रूप दिया जाना संभव होता। जर्मनी, इटली जैसे देश यूरो फाइटर में परमाणु हथियार लगाने का विरोध करते हैं। राफेल का परमाणु हमले में काम आना भी सौदे की गोपनीयता का एक बड़ा कारण है। बता दें कि 2013 में संप्रग के समय भारत सरकार ने हथियार खरीद के नए नियम लागू किए थे। इसके तहत राफेल सरीखे दो सरकारों के बीच होने वाले सौदे में कैबिनेट की मंज़ूरी जरूरी नहीं हैं।