राज की बात: भगवान शिव के विष का असर कहीं आप पर भी तो नहीं हो रहा

Edited By ,Updated: 20 Sep, 2015 12:59 PM

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सृष्टि के विनाश की डोर संभाले शिव का एक और नाम नीलकंठ भी है। इस नाम के पीछे का कारण है उनका नीलाकंठ, जो इस बात का प्रमाण है कि शिव सृष्टि को बुराई व पाप से बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अमृत पाने की इच्छा से जब देव-दानव बड़े जोश और वेग से...

सृष्टि के विनाश की डोर संभाले शिव का एक और नाम नीलकंठ भी है। इस नाम के पीछे का कारण है उनका नीलाकंठ, जो इस बात का प्रमाण है कि शिव सृष्टि को बुराई व पाप से बचाने के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। अमृत पाने की इच्छा से जब देव-दानव बड़े जोश और वेग से समुद्र मंथन कर रहे थे, तभी कालकूट नामक भयंकर विष निकला। उस विष की अग्नि से दसों दिशाएं जलने लगीं। समस्त प्राणियों में हाहाकार मच गया। देवताओं और दैत्यों सहित ऋषि, मुनि, मनुष्य, गंधर्व और यक्ष आदि उस विष की गरमी से जलने लगे। देवताओं की प्रार्थना पर, भगवान शिव विषपान के लिए तैयार हो गए। उन्होंने भयंकर विष को हथेलियों में भरा और उसे पी गए। विष के कारण भगवान शिव का कंठ नीला पड़ गया और वे संसार में नीलकंठ के नाम से प्रसिद्ध हुए। 

शिव संस्कृत भाषा का शब्द है, जिसका अर्थ है, कल्याणकारी या शुभकारी। यजुर्वेद में शिव को शांतिदाता बताया गया है। 'शि' का अर्थ है, पापों का नाश करने वाला, जबकि 'व' का अर्थ देने वाला यानी दाता।

हलाहल विष को पीते समय शिव की हथेली से थोड़ा-सा विष पृथ्वी पर टपक गया, जिसे सांप, बिच्छू आदि विषैले जन्तुओं ने ग्रहण किया। बचा हुआ विष ब्रहामांड में विद्यमान हो गया। वास्तविकता में विष पूरे संसार में विद्यमान है। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार व्यक्ति की जन्मकुंडली में शब्द "कुंडली" का तात्पर्य है सर्प की कुंडली। कालपुरुष सिद्धान्त के अनुसार ईश्वर को छोड़कर जो अनंत शेष बच जाता है वही शेषनाग है। 

ज्योतिषशास्त्र के अनुसार हर व्यक्ति की कुंडली में सर्प कुंडली मारकर बैठा है। चंद्रमा ग्रह पर भगवान शंकर का आधिपत्य माना जाता है तथा शनि ग्रह पर देवी के काली स्वरूप का आधिपत्य माना जाता है। शिव और काली के मिलन से अर्थात चंद्र और शनि के मिलन से विषयोग का निर्माण होता है। चंद्रमा अमृत तुल्य है तथा शनि विष तुल्य है। कुंडली में विद्यमान कुछ ऐसे योग हैं जो शुभ योग हैं तो अशुभ योग भी हैं। अशुभ योगों में एक योग है विषयोग। यह किस प्रकार बनता है एवं इसका क्या प्रभाव होता है, आइए जानते हैं-

कुंडली में चंद्र शुभ ग्रह से सम्बन्ध करता है तो उसमें अमृत-शक्ति का प्रादुर्भाव होता है तथा यदि वह शनि जैसे अशुभ ग्रह या पाप ग्रह से सम्बन्ध करता है तो विष योग का निर्माण होता है। विष योग जीवन में विष योग के परिणाम देता है। विष योग को पुनर्फू योग भी कहते हैं। किसी भी कुंडली में यह युति सर्वाधिक रूप से बुरे फल प्रदान करती है। इसमें चंद्रमा व शनि दोनों से संबन्धित शुभ फलों का नाश होता है। युति संबंध केवल शनि व चंद्रमा के साथ-साथ बैठने से ही नहीं होता है अपितु दोनों का दीप्तांशों में समान होने पर ही यह युति होती है। दोनों ग्रह जितने अधिक अंशानुसार साथ होंगे उतना ही यह योग प्रभावशाली होगा साथ ही उसी अनुपात में नकारात्मकता भी विद्यमान रहेगी। चंद्रमा माता का कारक होता है अतः माता के विषय में जानकारी चंद्रमा की स्थिति से ही पता चलती है। कुंडली में इस योग के होने से माता का शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य प्रभावित होगा। माता मानसिक रूप से निराशा का शिकार हो सकती है। माता के सुख में कमी भी पाई जाती है।

चंद्रमा व शनि से बना पूर्ण विष योग तो व्यक्ति में आत्महत्या की भावना उत्पन्न करता है। यदि इस स्थिति में चन्द्रमा पाप-कर्तरी में हो तो आत्महत्या की भावना प्रबल बनती है। यह युति किसी भी भाव में शुभ नहीं मानी जाती है, जिस भाव में भी यह युति होती है उस भाव का फल पूरी तरह से नष्ट हो जाता है। लग्न में विषयोग प्राणघातक होता है। द्वितीय भाव में विषयोग माता को मृत्यु तुल्य कष्ट देता है। तृतीय भाव में विषयोग संतान हेतु घातक होता है। चतुर्थ भाव में विषयोग व्यक्ति को शूरवीर हंता बनता है। पंचम भाव में विषयोग से वैवाहिक जीवन में अधूरापन लाता है। छठे भाव में विषयोग रोगी व अल्पायु बनाता है। सप्तम भाव में विषयोग जीवनसाथी को मृत्यु तुल्य कष्ट देता है। अष्टम भाव में विषयोग व्यक्ति को दानवीर बनाता है। नवम भाव में विषयोग धार्मिक यात्राएं करता हैं। दशम भाव में विषयोग से व्यक्ति महा कंजूस बनता है। एकादश भाव में विषयोग शारीरिक पीड़ा प्रदान करता है। द्वादश भाव विषयोग वैराग्य भाव उत्पन्न करता है।

आचार्य कमल नंदलाल

ईमेल: kamal.nandlal@gmail.com 

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