महाभारत में नि:शस्त्र होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण प्रधान योद्धा क्यों कहलाए

Edited By ,Updated: 08 Jan, 2016 04:35 PM

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महाभारत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्रदान करने वाला कल्पवृक्ष है। यह विविध कथा रूपी रत्नों का रत्नाकर तथा अज्ञान के अंधकार को विनष्ट करने वाला सूर्य है। इस ग्रंथ के मुख्य विषय तथा इस महायुद्ध के महानायक भगवान् श्रीकृष्ण हैं। नि:शस्त्र होते हुए भी...

महाभारत धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्रदान करने वाला कल्पवृक्ष है। यह विविध कथा रूपी रत्नों का रत्नाकर तथा अज्ञान के अंधकार को विनष्ट करने वाला सूर्य है। इस ग्रंथ के मुख्य विषय तथा इस महायुद्ध के महानायक भगवान् श्रीकृष्ण हैं। नि:शस्त्र होते हुए भी भगवान् श्रीकृष्ण ही महाभारत के प्रधान योद्धा हैं। इसलिए सम्पूर्ण महाभारत भगवान वासुदेव के ही नाम, रूप, लीला और धाम का संकीर्तन है। नारायण के नाम से इस ग्रंथ के मंगलाचरण में व्यास जी ने सर्वप्रथम भगवान् श्रीकृष्ण की ही वंदना की है।
 
महाभारत के आदि पर्व में भगवान् श्रीकृष्ण का प्रथम दर्शन द्रौपदी-स्वयंवर के अवसर पर होता है। जब अर्जुन के लक्ष्य वेध करने पर द्रौपदी उनके गले में जयमाला डालती है तब कौरव पक्ष के लोग तथा अन्य राजा मिलकर द्रौपदी को पाने के लिए युद्ध की योजना बनाते हैं। उस समय भगवान् श्रीकृष्ण ने उनको समझाते हुए कहा कि, ‘‘इन लोगों ने द्रौपदी को धर्म पूर्वक प्राप्त किया है। अत: आप लोगों को अकारण उत्तेजित नहीं होना चाहिए।’’
 
भगवान् श्रीकृष्ण को धर्म का पक्ष लेते हुए देख कर सभी लोग शांत हो गए और द्रौपदी के साथ पांडव सकुशल अपने निवास पर चले गए।
 
धर्मराज युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में जब यह प्रश्र उपस्थित हुआ कि यहां सर्वप्रथम किसकी पूजा की जाए तो उस समय महात्मा भीष्म ने कहा कि, ‘‘वासुदेव ही इस विश्व के उत्पत्ति एवं प्रलय स्वरूप हैं और इस चराचर जगत का अस्तित्व उन्हीं से है। वासुदेव ही अव्यक्त प्रकृति, सनातन कर्ता और समस्त प्राणियों के अधीश्वर हैं। इसलिए वे ही प्रथम पूजनीय हैं।’’
 
भीष्म के इस कथन पर चेदिराज शिशु पाल ने श्रीकृष्ण की प्रथम पूजा का विरोध करते हुए उनकी कठोर निंदा की और भीष्म पितामह को भी खरी-खोटी सुनाई। भगवान् श्रीकृष्ण धैर्यपूर्वक उसकी कठोर बातों को सहते रहे और जब वह सीमा पार करने लगा, तब उन्होंने सुदर्शन चक्र के द्वारा उसका सिर धड़ से अलग कर दिया। 
 
सबके देखते-देखते शिशुपाल के शरीर से एक दिव्य तेज निकला और भगवान् श्रीकृष्ण में समा गया। इस आलौकिक घटना से यह सिद्ध होता है कि कोई कितना भी बड़ा पापी क्यों न हो, भगवान के हाथों मर कर वह सायुज्य मुक्ति प्राप्त करता है। पांडवों के एकमात्र रक्षक तो भगवान् श्रीकृष्ण ही थे, उन्हीं की कृपा और युक्ति से ही भीमसेन के द्वारा जरासंध मारा गया और धर्मराज युधिष्ठिर का राजसूय यज्ञ सम्पन्न हुआ। राजसूय यज्ञ का दिव्य सभागार भी मय दानव ने भगवान् श्रीकृष्ण के आदेश से ही बनाया था। द्यूत में पराजित हुए पांडवों को पत्नी द्रौपदी जब भरी सभा में दु:शासन द्वारा अपमानित की जा रही थी, तब उसकी करुण पुकार सुनकर उस वनमाली ने वस्त्रावतार धारण किया। शाक का एक पत्ता खाकर भक्तभयहारी भगवान् ने दुर्वासा के कोप से पांडवों की रक्षा की।
 
युद्ध को रोकने के लिए श्रीकृष्ण शांति दूत बने, किंतु दुर्योधन के अहंकार के कारण युद्धारम्भ हुआ और राजसूय यज्ञ के अग्रपूज्य भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी बने। संग्राम भूमि में उन्होंने अर्जुन के माध्यम से विश्व को गीता रूपी दुर्लभ रत्न प्रदान किया। भीष्म, द्रोण, कर्ण और अश्वत्थामा जैसे महारथियों के दिव्यास्त्रों से उन्होंने पांडवों की रक्षा की। 
 

युद्ध का अंत हुआ और युधिष्ठिर का धर्मराज्य स्थापित हुआ। पांडवों का एकमात्र वंशधर उत्तरा का पुत्र परीक्षित् अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र के प्रभाव से मृत उत्पन्न हुआ, किन्तु भगवान् श्रीकृष्ण की कृपा से उसे जीवनदान मिला। अंत में गांधारी के शाप को स्वीकार करके महाभारत के महानायक भगवान् श्रीकृष्ण ने यादव कुल के परस्पर गृह युद्ध में संहार के साथ अपनी मानवीय लीला का संवरण किया। 

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