अपकर्मों और पापों से छुटकारा पाने के लिए धनी व्यक्ति यह काम अवश्य करें

Edited By ,Updated: 06 Jun, 2016 07:49 AM

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हिन्दू धर्म में दान को बहुत ही महत्वपूर्ण बताया गया है। हमारे धर्मग्रंथों में कई प्रकार के दान और उनका महत्व बताया गया है। गौदान, गुप्तदान, अन्नदान, फल दान, तांबूल दान, वेणी दान, भूमि दान, तुला पुरुष दान, किंचित दान, सर्वस्व दान, ब्रह्मांड दान,...

हिन्दू धर्म में दान को बहुत ही महत्वपूर्ण बताया गया है। हमारे धर्मग्रंथों में कई प्रकार के दान और उनका महत्व बताया गया है। गौदान, गुप्तदान, अन्नदान, फल दान, तांबूल दान, वेणी दान, भूमि दान, तुला पुरुष दान, किंचित दान, सर्वस्व दान, ब्रह्मांड दान, हिरण्यगर्भ दान, कल्पपादप या कल्पवृक्ष दान, गोसहस्त्र दान, कामधेनु दान, हिरण्याश्व दान, हिरण्याश्वरथ दान, हेमहस्तिरथ दान, पंचलागलक दान, धरादान या हेमधरा दान, विश्वचक्र दान, महाकल्पलता दान, सप्तसागरक दान, रत्नधेनु दान, महाभूतघट दान, विविध दान, कन्या दान, शैयादान और तिल दान को महादान की संज्ञा दी गई है। 

 

अग्रि पुराण के अनुसार दस श्रेष्ठ महादान में सोना, अश्व (घोड़ा), तिल, हाथी, दासी, रथ, भूमि, घर, वधू और कपिला गाय आदि शामिल हैं। वैसे पुराणों में महादान की संख्या सोलह गिनाई गई है। ये इस प्रकार हैं तुला पुरुष, मनुष्य के वजन के बराबर, सोना, चांदी का दान, हिरण्यगर्भ, ब्रह्मांड, कल्पवृक्ष, गोसहस्र, कामधेनु, हिरण्याश्व रथ या केवल अश्वरथ, हेमहस्तिरथ या केवल हस्तरथ, पंचलांगल, घटादान, विश्वचक्र, कल्प लता, सप्तसागर, रत्नधेनु और महाभूतघट।

 

वेद, पुराणों के जमाने में किए जाने वाले ये दान अब ज्यादातर प्रचलन में नहीं हैं। पुराणों में अनेक दानों का वर्णन किया गया है। इनमें गौदान सबसे ज्यादा पुण्य देने वाला व महादानों में श्रेष्ठ माना जाता है। वैसे कहा गया है कि सब दानों में पहला दान तुला दान, उसके बाद हिरण्यगर्भ दान है। कल्पवृक्ष का दान भी महत्वपूर्ण है, इसके बाद हजार गायों के दान को पुण्य देने वाला माना गया है। सोने की गाय, सोने का घोड़ा, सोने के हाथी की गाड़ी, पांच हल से जोतने योग्य भूमि, बारह संसार चक्र कल्पवृक्ष, सात समुद्रों का दान, रत्न की गाय का दान, महाभूतों का दान और हाथियों का दान भी महत्वपूर्ण है।

 

शास्त्रों में कहा गया है कि भरत जैसे राजाओं ने ये दान किए थे। संसार में अपकर्मों और पापों से छुटकारा पाने के लिए धनी व्यक्तियों को यह दान करना चाहिए। जीवन क्षणभंगुर है, लक्ष्मी चंचल है। वह हमेशा किसी के पास नहीं रहती इसलिए धन होने पर दान करना ही उसकी शोभा है। तीर्थराज प्रयाग में महाराज रघु, मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम, सम्राट समुद्र गुप्त और शीलादित्य सम्राट हर्षवर्धन ने अनेक दान किए थे। सम्राट हर्षवर्धन हर पांचवें या छठे साल कुंभ मेले में जाते थे।  वह बारी-बारी भगवान सूर्य, शिव और बुध का पूजन करते थे। पूजन के बाद ब्राह्मणों, आचार्यों, दीनों, बौद्ध संघ के तपस्वी भिक्षुओं को दान देते थे। इस दान के क्रम में वह लाए हुए अपने खजाने की सारी चीजें दान कर देते थे। वह अपने राजसी वस्त्र भी दान कर देते थे। फिर वह अपनी बहन राजश्री से कपड़े मांग कर पहनते थे।

 

दान के स्थल 

दान खास जगह देने से विशेष पुण्य फल देते हैं। घर में दिया गया दान दस गुना, गौशाला में दिया गया दान सौ गुना, तीर्थों में हजार गुना और शिवलिंग के समक्ष किया गया दान अनंतफल देता है।

 

गंगासागर, वाराणसी, कुरुक्षेत्र, पुष्कर, तीर्थराज, प्रयाग, समुद्र के तट, नैमिशारण्य, अमरकण्टक, श्री पर्वत, महाकाल वन (उज्जैन), गोकर्ण, वेद-पर्वत दान के लिए अति पवित्र स्थल माने गए हैं।

 

दान की दक्षिणा

दान करते समय दान लेने वाले के हाथ पर जल गिराना चाहिए। दान लेने वाले को दक्षिणा अवश्य देनी चाहिए। पुराने जमाने में दक्षिणा सोने के रूप में दी जाती थी लेकिन अगर सोने का दान किया जा रहा हो तो उसकी दक्षिणा चांदी के रूप में दी जाती है। 

 

दक्षिणा हमेशा एक, पांच, ग्यारह, इक्कीस, इक्यावन, एक सौ एक, एक सौ इक्कीस, एक सौ इक्यावन जैसे सामर्थ्यनुसार होनी चाहिए। दक्षिणा में कभी भी अंत में शून्य नहीं होना चाहिए। जैसे 50, 100 और 500 आदि।

 

दान के देवता 

दान में जो चीज दी जा रही है उसके अलग-अलग देवता कहे गए हैं। सोने के देवता अग्नि और गाय के रुद्र हैं। जिन कार्यों के कोई देवता नहीं हैं उनका दान विष्णु को देवता मानकर दिया जाता है। 

 

दान के तीन रूप 

नित्य, नैमित्तिक और काम्य ये दान के तीन रूप हैं। जो दान हर रोज दिया जाता है वह नित्य दान कहा जाता है। जो दान खास अवसर जैसे ग्रहण वगैरह के समय में दिया जाता है उसे नैमित्तिक कहा जाता है। काम्य दान उसे कहते हैं जिसे करने पर किसी कामना की पूर्ति इसी श्रेणी में आते हैं। गीता में दान को सात्विक, राजसी और तामसी इन तीन श्रेणियों में बांटा गया है। सात्विक दान वह है जो देश काल और पात्र के अनुसार कर्तव्य समझ कर किया जाता है और दान लेने वाला उसे अस्वीकार नहीं करता। राजसी दान वह है जो किसी इच्छा की पूर्ति के लिए उत्साह के बिना किया जाता है। तामसी दान वह है जो अनुचित काल, स्थान और पात्र को श्रद्धा के बिना दिया जाता है।

 

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