Sant Kabir Jayanti: सभी प्रकार के दुखों से छुटकारा चाहते हैं तो चलें इस मार्ग पर...

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 14 Jun, 2022 07:53 AM

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भक्तिकाल की संत परम्परा में संत शिरोमणि सद्गुरु कबीर जी का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने मानव के व्यावहारिक पक्ष को समाज के सामने रखा है। वह जीव और ईश्वर की एकता में विश्वास करते हैं। उन्होंने बहुत ही सहज शब्दों में कहा है कि जिस परमात्मा की तलाश...

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Sadguru Kabir Jayanti 2022: भक्तिकाल की संत परम्परा में संत शिरोमणि सद्गुरु कबीर जी का महत्वपूर्ण स्थान है। उन्होंने मानव के व्यावहारिक पक्ष को समाज के सामने रखा है। वह जीव और ईश्वर की एकता में विश्वास करते हैं। उन्होंने बहुत ही सहज शब्दों में कहा है कि जिस परमात्मा की तलाश में हम दर-दर भटकते हैं वह तो हमारे अंदर हैं। हम अज्ञानवश उसे देख नहीं पाते। यदि अहंकार का त्याग कर हम शरणागत भाव से भक्ति करें तो हम अपने अंदर छिपे परमात्मा स्वरूप को पहचान सकते हैं इसलिए उन्होंने भक्ति के मानवीय पक्ष को आगे किया है। ईश्वर के प्रति संपूर्ण समर्पण से ही सच्ची भक्ति और सभी प्रकार के दुखों से छुटकारा मिलता है। सद्गुरु कबीर जी भक्ति और प्रेम में भेद नहीं करते और हर प्राणी से प्रेम करने का उपदेश देते हैं। 

उनके अनुसार प्रेम किसी बाग में नहीं उपजता और न ही बाजार में बिकता है। अर्थात सच्ची भक्ति कोई साधारण वस्तु नहीं है जिसे जब चाहे आसानी से प्राप्त किया जा सके। इसे प्राप्त करने का एक ही साधन है-अहंकार का त्याग। अहंकार का त्याग करके इसे कोई भी हासिल कर सकता है चाहे वह राजा हो या प्रजा, अमीर हो या गरीब। उनके शब्दों में...

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प्रेम न बारी ऊपजे, प्रेम न हाट बिकाय। राजा परजा जेहि रुचै, सीस देइ ले जाय।।

सद्गुरु कबीर जी कहते हैं कि परमात्मा की प्राप्ति केवल सच्चे प्रेम से हो सकती है और इसे प्राप्त करने के लिए अहंकार का परित्याग अनिवार्य है। भक्ति का यह मार्ग कोई मौसी का घर नहीं है जहां जब चाहे अधिकारपूर्वक चले जाएं। इस संबंध में उनकी यह साखी बहुत प्रसिद्ध है...

कबीरा यह घर प्रेम का, खाला का घर नाहिं। सीस उतारे भुंई धरे, तब पैठे घर माहिं।।

सद्गुरु कबीर कहते हैं कि कामी, क्रोधी और लालची ये कभी भक्ति नहीं कर सकते। भक्ति तो कोई शूरवीर ही कर सकता है जो जाति, वर्ण और कुल का मद मिटा दे। वह कहते हैं कि सांसारिक जीवन में लोग अपनी जाति, धर्म एवं कुल के अहंकार में चूर रहते हैं और काम, क्रोध, लोभ, मद के दम्भ में रहते हैं, इसलिए ये लोग भक्ति नहीं कर सकते। सच्ची भक्ति तो वही कर सकता है जो मिथ्या अहंकार का त्याग कर अपनी पहचान को मिटा दे और ईश्वर में ध्यान लगा दे।

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कामी क्रोधी लालची, इनसे भक्ति न होय। भक्ति करे कोइ सूरमा, जाति बरन कुल खोय।।

सद्गुरु कबीर जी के अनुसार पुस्तकें पढ़-पढ़ कर न जाने कितने व्यक्ति मर गए परंतु ज्ञानी नहीं बन सके क्योंकि उन्होंने किताबों में लिखी हुई बातें तो पढ़ लीं लेकिन उनका सार नहीं समझ सके। सारे विश्व की सत्ता प्रेम पर अवलंबित है। अत: जो व्यक्ति प्रेम के महत्व को समझने में सफल हो गया, वह महाज्ञानी बन सकता है। इस संबंध में उनकी यह वाणी बहुत ही प्रसिद्ध है...

पोथी पढि़-पढि़ जग मुवा, पंडित भया न कोय। एकै आखर प्रेम का, पढ़ै सो पंडित होय।।

समर्पण की भावना मनुष्य को देवत्व तक ले जाती है। सच्चा भक्त भगवान से कहता है-हे प्रभु! मुझमें मेरा कुछ भी नहीं है, जो कुछ भी है वह तुम्हारा है। इसलिए तेरी वस्तु को तुझे समर्पित करने में मेरा क्या जाता है!

मेरा मुझमें कुछ नहीं, जो कुछ है सो तेरा। तेरा तुझको सौंपता, क्या लागे है मेरा।।

इस साखी का महत्व इस बात से पता चलता है कि आरती में इसे आज भी गाया जाता है-‘तेरा तुझको अर्पण क्या लागे मेरा।’

संस्कृत में भी कहा गया है- ‘त्वदीयं वस्तु गोविन्द, तुभ्यमेव समर्पये।’

ऐसा आम ही देखने को मिलता है कि दुख की घड़ी में सभी भगवान को याद करते हैं लेकिन सुख में भगवान की सुधि बिल्कुल नहीं आती। सद्गुरु ने संसार को संबोधित करते हुए कहा है कि सुख के समय भगवान को याद करोगे तो दुख नहीं आएगा।

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दु:ख में सुमिरन सब करै, सुख में करै न कोय। जो सुख में सुमिरन करै, फिर दु:ख काहे होय।।

यहां उन्होंने मानव की स्वाभाविक प्रकृति का सुंदर चित्रण किया है। यदि मनुष्य अपना अहंकार त्याग कर मानव मात्र से प्रेम करता है तो यह सही अर्थ में भक्ति है। इसी प्रकार वह कहते हैं कि भगवान का सुमिरन दिल से करना चाहिए, दिखावे के लिए मुख से राम-राम करने से कोई लाभ नहीं। अनावश्यक दिखावे को समाप्त कर सच्चे मन से ईश्वर को मनन करो।

सुमिरौ सुरत लगाय के, मुख से कुछ न बोल। बाहर का पट बंद कर, अंदर का पट खोल।।

इस प्रकार हम कह सकते हैं कि सद्गुरु कबीर जी ने सुलभ दृष्टांतों और उदाहरणों की मदद से समाज को मानव-प्रेम का पाठ पढ़ाया है। यदि मनुष्य बाहरी आडम्बर, जातिवाद, छुआछूत, साम्प्रदायिकता इत्यादि सामाजिक बुराइयों से ऊपर उठ कर परस्पर प्रेम की भावना से रहता है तो हम एक समरस समाज की स्थापना कर सकते हैं।  

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