7 वर्ष में सोने की वर्षा करने वाले बालक बने जगद्गुरु शंकराचार्य

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 23 Jan, 2020 10:34 AM

adi shankaracharya biography in hindi

एक सन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र 7 वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आंवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया की मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा।

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एक सन्यासी बालक, जिसकी आयु मात्र 7 वर्ष थी, गुरुगृह के नियमानुसार एक ब्राह्मण पत्नी ने उस बालक के हाथ पर एक आंवला रखा और रोते हुए अपनी विपन्नता का वर्णन किया। उसकी ऐसी अवस्था देखकर उस प्रेम-दया की मूर्ति बालक का हृदय द्रवित हो उठा। वह अत्यंत आर्त स्वर में मां लक्ष्मी का स्तोत्र रचकर उस परम करुणामयी से निर्धन ब्राह्मण के घर में सोने के आंवलों की वर्षा कर दी। जगत जननी महालक्ष्मी को प्रसन्न कर उस ब्राह्मण परिवार की दरिद्रता दूर करने वाला, दक्षिण के कालाड़ी ग्राम में जन्मा वह बालक था-शंकर, जो आगे चलकर जगद्गुरु शंकराचार्य के नाम से विख्यात हुए। इस महाज्ञानी शक्तिपुंज बालक के रूप में स्वयं भगवान शंकर ही इस धरती पर अवतीर्ण हुए थे। इनके पिता शिवगुरु नामपुद्रि के यहां विवाह के कई वर्षों बाद तक जब कोई संतान नहीं हुई, तब उन्होंने अपनी पत्नी विशिष्टा देवी के साथ पुत्र प्राप्ति की कामना से दीर्घकाल तक चंद्रमौली भगवान शंकर की कठोर आराधना की। आखिर प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने उन्हें स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, ‘‘वर मांगो।’’

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शिवगुरु ने अपने ईष्ट गुरु से एक दीर्घायु सर्वज्ञ पुत्र मांगा। भगवान शंकर ने कहा, ‘‘वत्स, दीर्घायु पुत्र सर्वज्ञ नहीं होगा और सर्वज्ञ पुत्र दीर्घायु नहीं होगा। बोलो तुम कैसा पुत्र चाहते हो?’’

तब धर्मप्राण शास्त्रा सेवी शिवगुरु ने सर्वज्ञ पुत्र की याचना की। औढरदानी भगवान शिव ने पुन: कहा, ‘‘वत्स तुम्हें सर्वज्ञ पुत्र की प्राप्ति होगी। मैं स्वयं पुत्र रूप में तुम्हारे यहां अवतीर्ण होऊंगा।’’

कुछ समय के पश्चात वैशाख शुक्ल पंचमी; कुछ लोगों के अनुसार अक्षय तृतीयाद्ध के दिन मध्याकाल में विशिष्टादेवी ने परम प्रकाश रूप अति सुंदर, दिव्य कांतियुक्त बालक को जन्म दिया। देवज्ञ ब्राह्मणों ने उस बालक के मस्तक पर चक्र चिन्ह, ललाट पर नेत्रा चिन्ह तथा स्कंध पर शूल चिह्न परिलक्षित कर उसे शिव अवतार निरुपित किया और उसका नाम ‘शंकर’ रखा। इन्हीं शंकराचार्य का आविर्भाव हुआ, उस समय भारत में वैदिक धर्म मलान हो रहा था तथा मानवता बिसर रही थी, ऐसे में आचार्य शंकर मानव धर्म के भास्कर प्रकाश स्तम्भ बनकर प्रकट हुए।

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मात्र 32 वर्ष के जीवन काल में उन्होंने सनातन धर्म को ऐसी ओजस्वी शक्ति प्रदान की कि उसकी समस्त मूर्छा दूर हो गई। शंकराचार्य जी तीन वर्ष की अवस्था में मलयालम का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर चुके थे। इनके पिता चाहते थे कि ये संस्कृत का पूर्ण ज्ञान प्राप्त करें। परंतु पिता की अकाल मृत्यु होने से शैशवावस्था में ही शंकर के सिर से पिता की छत्रछाया उठ गई और सारा बोझ शंकर जी की माता के कंधों पर आ पड़ा लेकिन उनकी माता ने कर्तव्य पालन में कमी नहीं रखी। पांच वर्ष की अवस्था में इनका यज्ञोपवीत संस्कार करवाकर वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरुकुल भेज दिया गया। ये प्रारंभ से ही प्रतिभा संपन्न थे, अत: इनकी प्रतिभा से इनके गुरु भी बेहद चकित थे। अप्रतिम प्रतिभा संपन्न श्रुतिधर बालक शंकर ने मात्र 2 वर्ष के समय में वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए। 

तत्पश्चात गुरु से सम्मानित होकर घर लौट आए और माता की सेवा करने लगे। उनकी मातृ शक्ति इतनी विलक्षण थी कि उनकी प्रार्थना पर आलवाई; पूर्णाद्ध नदी, जो उनके गांव से बहुत दूर बहती थी, अपना रुख बदल कर कालाड़ी ग्राम के निकट बहने लगी, जिससे उनकी माता को नदी स्नान में सुविधा हो गई। कुछ समय बाद इनकी माता ने इनके विवाह की सोची, पर आचार्य शंकर गृहस्थी के झंझट से दूर रहना चाहते थे।

एक ज्योतिष ने जन्म-पत्री देखकर बताया भी था कि अल्पायु में इनकी मृत्यु का योग है। ऐसा जानकर आचार्य शंकर के मन में संन्यास लेकर लोक-सेवा की भावना प्रबल हो गई थी। संन्यास के लिए उन्होंने मां से हठ किया और बालक शंकर ने 7 वर्ष की आयु में संन्यास ग्रहण कर लिया। फिर जीवन का उच्चतम लक्ष्य प्राप्त करने के लिए माता से अनुमति लेकर घर से निकल पड़े। आज भी भारत को ऐसे ओजस्वी प्रतिभा संपन्न मार्गदर्शक की आवश्यकता है जो प्रजा को भ्रष्टाचार व प्रमाद के गर्त से निकाले। 


 

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