भारतीय धर्म संस्कृति में पशु-पक्षियों को भी पूजा जाता है, जानें कारण

Edited By ,Updated: 22 Dec, 2016 03:40 PM

animal worship

धर्म मानवता का विस्तार करता है, मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी उसकी करुणा में आश्रय पाते हैं। भारतीय संस्कृति में पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम, सह-अस्तित्व और वहां तक कि उनकी पूजा की भी परंपरा रही है।

धर्म मानवता का विस्तार करता है, मनुष्य ही नहीं पशु-पक्षी भी उसकी करुणा में आश्रय पाते हैं। भारतीय संस्कृति में पशु-पक्षियों के प्रति प्रेम, सह-अस्तित्व और वहां तक कि उनकी पूजा की भी परंपरा रही है। भारतीय धर्मशास्त्रों के अनुसार जीवों की उत्पत्ति जल से हुई है। वृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है कि सबसे पहले जल में सूक्ष्म जीव की उत्पत्ति हुई, उससे दूसरा जीव बना और उनके संयोग से धीरे-धीरे चींटी, बकरी, वराह आदि जीवों का विकास हुआ।


भगवान विष्णु के दस अवतारों की संकल्पना भी इसी मान्यता को पुष्ट करती है। भगवान विष्णु ने धरती पर सबसे पहला अवतार मत्स्य रूप में लिया। उनका दूसरा अवतार कच्छप के रूप में था, जो कि एक उभयचर प्राणी है। उनका तीसरा अवतार वराह के रूप में था, जो पूर्णरूपेण स्थलचर प्राणी है। चौथा अवतार नरसिंह के रूप में हुआ। यह मनुष्य और पशु का मिला-जुला रूप था।


वैदिक युग में गौ, वृषभ और अश्व आदि पशु महत्वपूर्ण स्थान रखते थे। वैदिक कालीन भारतीय ईश्वर से अपनी प्रार्थनाओं में श्रेष्ठ शासक और बुद्धिमान पुत्र के साथ ही उत्तम पशुओं की भी कामना करते थे। मनुष्य और अन्य जीवों के बीच साहचर्य इतना प्रगाढ़ था कि प्राचीन भारतीय, जानवरों की भाषाओं को समझने की योग्यता रखते थे। थांदोग्य उपनिषद में एक कथा के अनुसार एक सारस का जोड़ा सायंकाल अपने घोंसले की ओर लौट रहा था। मध्यमार्ग में जब वह एक राज्य के ऊपर से गुजर रहा था, तो सारस ने अपने साथी से उस राज्य के राजा की प्रशंसा करते हुए कहा कि इस राज्य का राजा बहुत ही धार्मिक  और ज्ञानी व्यक्ति है। इस पर दूसरे सारस ने उससे पूछा कि क्या यह राजा रैक्व के ज्ञान की बराबरी कर सकता है? पक्षियों की बोली समझने में सक्षम उस प्रतापी राजा ने सारसों द्वारा रैक्व के परम ज्ञानी होने के बारे में जानकर उसकी तलाश प्रारंभ कर दी।


रामकथा में पशु-पक्षियों को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। वनवास के दौरान अनेक पशु-पक्षियों को भगवान राम की मित्रवत अनुकंपा मिली थी, जैसे-जटायु, सुग्रीव, हनुमान, हिरण। रामायण में उल्लिखित किष्किंधा में आज भी अत्यधिक मात्रा में बंदर पाए जाते हैं। मछलियां तो अक्सर हमारी पुराकथाओं में आती रही हैं। हमारे पूर्वज मनु से संबंधित एक कथा है, जिसके अनुसार एक बार जब मनु सूर्य देवता को अर्ध्य अर्पित कर रहे थे कि उनकी हथेली में एक सुनहरी मछली आ गई। उस मछली ने मनु से वादा किया था कि अगर मनु उसे मुक्त कर दें, तो वह एक दिन उन्हें भारी मुसीबत से बचाएगी।


मनु उसे आश्रम में लाकर उसकी देखभाल करते रहे। जब वह मछली बड़ी हो गई, तो उन्होंने उसे एक झील में छोड़ दिया। एक दिन मछली ने उन्हें धरती पर प्रलय आने की चेतावनी दी। जब धरती पर प्रलय आया, तो मनु ने सभी जानवरों को एक बड़ी-सी नाव पर बैठा लिया। तूफान इतना प्रलयंकारी था कि नाव पर बैठे हुए सभी जानवर भय से चीखने लगे। मनु की नाव उलटने ही वाली थी कि उसी क्षण वह मछली उपस्थित हुई और उनकी नाव को सुरक्षित स्थान तक पहुंचाया। 


पुराणों में समुद्र मंथन की एक कथा वर्णित है। सुर और असुरों द्वारा मिलकर किए गए इस समुद्र मंथन में सर्प वासुकी का प्रयोग रस्सी के रूप में किया गया था। मंथन के दौरान मंदार पर्वत को समुद्र में डूबने से बचाने के लिए भगवान विष्णु ने कच्छप रूप धर आधार प्रदान किया। इस मंथन में जो चीजें निकलीं उनमें कामधेनु गाय और शंख जैसी चीजें भी थीं।


हमारे यहां प्राचीनकाल से सर्प पूजा का भी प्रचलन है। ऐसा माना जाता है कि कश्यप मुनि पाताल लोक में विभिन्न प्रकार के सर्पों के साथ रहते थे। उनकी पत्नी को सभी सर्पों की माता कहा जाता है। जहां भगवान शंकर के गले में सर्पों की माला शोभा देती है, वहीं भगवान विष्णु की शय्या ही शेषनाग है। द्वापर युग में जब भगवान विष्णु ने कृष्ण के रूप में धरती पर अवतार ग्रहण किया, तो शेषनाग ने उनके भाई बलराम के रूप में जन्म लिया। भारत में नागपंचमी के अवसर पर सांपों को दूध पिलाने की भी परंपरा है।


हमारे यहां गगनचरों की भी पूजा करने की परंपरा है। माना जाता है कि पितृपक्ष में हमारे पुरखे कौवों के रूप में आते हैं। जटायु और संपाती को गरुड़ का और गरुड़ को कश्यप का पुत्र माना जाता है। कबूतर कामदेव को प्रिय है और गणेश जी के भाई भगवान कार्तिकेय मोर की सवारी करते हैं, जबकि देवी सरस्वती का वाहन हंस है। 

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