Edited By Niyati Bhandari,Updated: 05 Apr, 2021 11:35 AM
इन पांच बातों का त्याग ज्ञानी और भक्त सभी साधकों को करना चाहिए :
व्यर्थ चिंतन, व्यर्थ भाषण, व्यर्थ दर्शन, व्यर्थ श्रवण और व्यर्थ भ्रमण:
भगवान के नाम स्मरण, भगवान की लीलाओं के स्मरण और भगवत्स्वरूप के स्मरण से व्यर्थ चिंतन दूर होता है।
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इन पांच बातों का त्याग ज्ञानी और भक्त सभी साधकों को करना चाहिए :
व्यर्थ चिंतन, व्यर्थ भाषण, व्यर्थ दर्शन, व्यर्थ श्रवण और व्यर्थ भ्रमण:
भगवान के नाम स्मरण, भगवान की लीलाओं के स्मरण और भगवत्स्वरूप के स्मरण से व्यर्थ चिंतन दूर होता है।
भगवद्गुणानुवाद और भगवन्नाम कीर्तन से व्यर्थ भाषण निवृत्त होता है।
भगवन्मूर्ति, महात्मा और गुरुदेव के दर्शन करने से व्यर्थ दर्शन दूर होता है।
भगवत कथा श्रवण से व्यर्थ श्रवण की निवृत्ति होती है।
भगवत्सेवा और भक्तजनों की सेवा करने से व्यर्थ भ्रमण निवृत्त होता है।
इन पांच बातों से प्रेम में कमी आ जाती है :
बहुत ग्रंथ पढ़ना, बहिर्मुख पुरुषों को पढ़ना, बहिर्मुख पुरुषों का संग करना, किसी भी व्यक्ति से अतिशय आसक्त होना, उपदेशक बनना।
काम, क्रोध, लोभ, मोह, मत्सर और मद सर्वथा त्याज्य हैं, इनकी निवृत्ति के उपाय इस प्रकार हैं :
काम उपासना से, क्रोध सत्संग से, मोह एकांत वास से, लोभ त्याग से, मत्सर किए हुए कर्म को ईश्वरार्पण करने से और मद भिक्षावृत्ति से निवृत्त होता है।
जो बाह्य त्याग अभिमानपूर्वक किया जाता है वही ‘दम्भ’ कहा जा सकता है। निराभिमान रह कर किया हुआ बाह्य त्याग तो साधन रूप है। दम्भ बहुत दूर तक चलता है। इसकी गति अच्छे-अच्छे महात्माओं को भी नहींं जान पड़ती। अत: इससे बहुत सावधान रहना चाहिए।
दूसरे के अवगुणों को देखना, सुनना, कहना या चिंतन करना यही द्वेष का कारण है तथा इसी से क्रोध आता है। अत: इसका त्याग करना चाहिए। इसका प्रधान साधन है-पर-चर्चा का त्याग।
हमें दूसरों के गुण और दोष दोनों पर ही दृष्टि नहीं देनी चाहिए। ये दोनों माया हैं, अत: इन्हें देखना ही दोष है और इनसे उदासीन रहना ही गुण है।
काम से तृष्णा हुई है, तृष्णा को ही लोभ कहते हैं और लोभ से ही इच्छा होती है तथा इच्छा मेें विघ्न पड़ने पर ही क्रोध होता है। अत: इच्छा-रहित व्यक्ति ही अक्रोधी हो सकता है।
वाणी, नेत्र, हाथ और पैरों की चंचलता मूर्खता का लक्षण है। अत: इन चारों प्रकार की चंचलताओं का त्याग करो। इनमें से एक का होना भी मूर्खता का चिन्ह है, जिसमें चारों हों वह तो महामूर्ख है। संक्षेप में इनका विवरण इस प्रकार हैं:
वाक्चांचल्य : जोर से बोलना, अधिक बोलना अथवा बिना प्रयोजन बोलना।
नेत्र चांचल्य : इधर-उधर या ऊपर नीचे देखना।
हस्तचांचल्य : तिनका तोड़ना या पृथ्वी पर लिखना।
पादचांचल्य : पैर हिलाना अथवा बेढंगे तरीके से चलना।
साधक के प्रधानतया छह विघ्न हैं :
अतिभाषण, अतिपरिश्रम, अतिभोजन, संसारी नियमों में बंधना, दुष्टों का संग और लोभ। अधर्म से कमाई करना भी लोभ के अंतर्गत आता है।
किसी की हानि करानी हो तो उसे क्रोध दिला दो। क्रोध से तप नष्ट हो जाता है।
अपने कर्म को छोड़कर दूसरे के कर्म में लग जाना भी प्रमाद है। यह रजोगुण से होता है। अत: रजोगुण से तो तमोगुण ही अच्छा है। यह तो मूर्खता होती है, अत: सात्विक पुरुष पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। रजोगुणी के संग से वृत्ति खराब हो जाती है। अत: उसका संग सर्वथा त्याज्य है।