Edited By Niyati Bhandari,Updated: 07 Aug, 2023 09:24 AM
संसार में नाशवान भोगों की कामना करने वाले मनुष्य के पास दुख अपने आप आते हैं। धन, दौलत, वैभव में निरंतर वृद्धि मनुष्य की दरिद्रता को बढ़ाती रहती है। धन व भोग पदार्थों
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संसार में नाशवान भोगों की कामना करने वाले मनुष्य के पास दुख अपने आप आते हैं। धन, दौलत, वैभव में निरंतर वृद्धि मनुष्य की दरिद्रता को बढ़ाती रहती है। धन व भोग पदार्थों में कमी का अनुभव होते ही दरिद्र मनुष्य गलत तरीकों को अपना कर अर्थात पाप कर्मों में प्रवृत्त होकर भी उन्हें पाने का प्रयास करता रहता है। दुखों से सभी बचना चाहते हैं लेकिन दुखों के मूल कारण ‘कामना’ को नहीं छोड़ सकते। क्या ‘कामना’ के रहते सुख मिल सकता है ? दुख और दरिद्रता तो केवल उन्हीं मनुष्यों की नष्ट होती है, जिन्हें धन और वैभव की भूख नहीं है, जो संतोषी हैं। यहां आध्यात्मिक उद्घोष ‘त्यागाच्छन्तिरनन्तरम्’ (सुख तो त्याग से मिलता है) सत्य सिद्ध होता है। तात्पर्य हुआ कि मायिक, क्षणिक, शारीरिक सुख सामग्री से नहीं, त्यागजनित आत्मिक सुख से ही मानव अंतर्मन में भगवत अंश का आनंद होता है जिसे भूला नहीं जा सकता है।
अब दूसरी समस्या है, जनसंख्या में अत्यधिक वृद्धि। कोई आश्चर्य नहीं कि माल्थस ने सन् 1798 ई. में व पाल एहर्लिच ने सन् 1968 ई. में कहा था कि जनसंख्याधिक्य की तुलना में खाद्य सामग्री की कमी के फलस्वरूप सन् 1985 ई. तक मानव जाति का पांचवां भाग भूख जैसी घोर विपत्ति का सामना करते हुए समाप्त हो जाएगा किन्तु ऐसा नहीं हुआ। जनसंख्या कम नहीं हुई।
जन्म के साथ ही मनुष्य शरीर में विकास एवं ह्रास का क्रम प्रारंभ हो जाता है। शरीर की कोशिकाओं व इंद्रियों की शक्ति का निरंतर ह्रास होते रहने से 50-60 वर्ष की आयु तक मनुष्य के खाने-पीने, अच्छे कपड़े पहनने, मौज-मस्ती आदि भौतिक सुख और आनंद के स्तर में बहुत तेजी से कमी आने लगती है।
50-60 वर्ष व इससे अधिक उम्र के व्यक्ति अक्सर यह कहते हुए सुनाई देते हैं कि अब बढ़िया कपड़े पहनने, खाने-पीने, दीवाली पूजा, क्रिसमस, ईद, विवाह आदि उत्सवों में पहले के वर्षों जैसा आनंद नहीं रह गया है जबकि हम देख रहे हैं कि बच्चे, किशोर और नवयुवक इन सबका भरपूर उत्साह के साथ भौतिक आनंद लूटते दिखाई दे रहे हैं क्योंकि अब वर्तमान में अधिक धन एवं सुख-साधन उपलब्ध हैं फिर यह आनंद भौतिक होने के कारण भी काम करता ही होगा।
40-50 ऐसे उत्सव देख लेने के बाद स्वाभाविक रूप से उनका आकर्षण कम हो जाता होगा। इस भौतिक आनंद के संबंध में नवयुवक भी यही कहते हैं कि पिछले वर्ष दीपावली पर जो आनंद आया, उतना इस दीपावली पर नहीं आया। इससे स्पष्ट हो जाता है कि यह युवा वर्ग पर भी लागू होता है।
अग्नि में घी की आहुति देने से अग्नि कभी तृप्त नहीं होती, प्रत्युत बढ़ती ही है। ठीक इसी तरह ‘कामना’ के अनुकूल भोग भोगते रहने से कामनाएं कभी तृप्त नहीं होतीं, प्रत्युत अधिकाधिक बढ़ती ही रहती है। जो भी वस्तु सामने आती रहती है कामना अग्नि की भांति उसे खाती ही रहती है। त्याग से सुख होता है, यही परम सत्य है। जिसकी तृष्णा बढ़ी हुई है, वह दरिद्र है। जो संतोषी है वही धनी है।