मानो या न मानो- ऐसे लोगों को धन होते हुए भी नींद नहीं आती

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 02 Apr, 2022 08:05 AM

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एक वृक्ष यदि फूलों से मोह कर लेता है तो उनका त्याग तब तक नहीं करता जब तक वह फल देने में समर्थ नहीं होता। एक कुआं यदि जल स्तर से खाली नहीं किया जाता है तो उसे जल शिराओं से नया जल मिलना बंद हो जाता है। कुछ  समय तक उस कुएं से

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Inspirational Context: एक वृक्ष यदि फूलों से मोह कर लेता है तो उनका त्याग तब तक नहीं करता जब तक वह फल देने में समर्थ नहीं होता। एक कुआं यदि जल स्तर से खाली नहीं किया जाता है तो उसे जल शिराओं से नया जल मिलना बंद हो जाता है। कुछ  समय तक उस कुएं से पानी निकालना बंद कर दिया जाए तो पानी में सड़न और बदबू आ जाती है। उसका पानी पीने लायक नहीं रहता। दूध को, भोजन को, यदि काफी समय तक रखा रहने दें और उसका उपयोग नहीं किया जाए तो दूध फट जाता है और अन्न बासी हो जाता है। नदी अपना प्रवाह रोक लेती है तो उसका स्वच्छ और निर्मल जल भी सड़ने लग जाता है।

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ये बातें सिद्ध करती हैं कि प्रकृति का नियम देना, देना और सिर्फ देना है। यही नियम हमारे जीवन पर भी लागू होता है। हम अपनी धन लक्ष्मी, अपनी योग्यता, सामर्थ्य, कला व अपने अनुभव को दुनिया में नहीं बांटेंगे तो ये भी स्वत: समाप्त हो जाएंगे। लक्ष्मी तो चंचला होती है। उसे यदि हम कैद करके रखेंगे तो वह अपना प्रतिकूल असर जरूर दिखाएगी और यही लक्ष्मी जब अपनी प्रतिकूलता का असर दिखाती है तो पर्याप्त धन होते हुए भी नींद नहीं आती और वह परिवार में कलह का कारण भी बन जाती है। ऐसी स्थिति में वह धन हमारा होते हुए भी हमारे लिए सुखकारक नहीं बन पाता।

सच्चे अर्थों में तो धन के मालिक वे ही कहलाते हैं जो अपनी सात्विक आवश्यकताओं की पूर्ति के बाद बचे धन को परोपकार अर्थात दीन-दुखियों, राष्ट्र और समाज की सेवा में लगाते हैं। परोपकार शब्द का सीधा-सरल अर्थ है दूसरों का उपकार, दूसरों की भलाई करना।
परोपकार फलन्ति वृक्षा:,
परोपकाराय दुहन्ति गाव:।
परोपकाराय प्रवहन्ति नद्य:,
परोपकाराय सतां विभूतय:।।

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वृक्ष अपने फल दूसरों के उपकार के लिए पैदा करते हैं, गाएं अपना दूध दूसरों के उपकार के लिए देती हैं। नदियां दूसरों के उपकार के लिए बहती हैं और सज्जन भी दूसरों के उपकार के लिए ही जीवनयापन करते हुए अपने धन को दीन-दुखियों की सेवा के लिए उपयोग में लाते हैं। मानव जीवन में अशिक्षा, असमानता, निर्धनता, भुखमरी, बीमारी, विकलांगता आदि कई ऐसे कारण हैं जिनसे असंख्य बच्चे, युवक-स्त्री-पुरुष पीड़ा और दुख भोग रहे हैं। दूसरों की पीड़ा का एहसास प्रत्येक संवेदनशील व्यक्ति को होता है। पीड़ा और कष्ट का निवारण करना सबसे बड़ा उपकार है। समाज में ऐसा तो शायद कोई व्यक्ति नहीं होगा जो किसी न किसी रूप से दूसरों का उपकार करने की क्षमता नहीं रखता हो। दूसरों की पीड़ा और कष्ट देखकर स्वयं विकल होना और उनके प्रति सहानुभूति का भाव होना सज्जनता का परिचायक है, दया-करुणा भाव का प्रकट होना ईश्वरीय कृपा का परिचायक है और ऐसे भाव प्रत्येक मनुष्य में कभी न कभी अवश्य उत्पन्न होते हैं।

दया, करूणा, सेवा, सहयोग की भावना को सक्रियता के साथ मूर्तरूप देना ही परोपकार है। अपनी भावना, संसाधन, शक्ति समय और धन का कुछ अंश दूसरों की भलाई में लगा देना सबसे बड़ा उपकार है। भूखे को भोजन, निर्वस्त्र को कपड़े, असहाय को सहायता, बीमार को चिकित्सा-सुविधा उपलब्ध कराना ही पीड़ित मानवता की सच्ची सेवा है, परोपकार है।

जिनके पास प्रभु कृपा, सुयोग, सौभाग्य से पर्याप्त वैभव, धन-सम्पत्ति है, वे सज्जन अधिक आसानी से परोपकार कर सकते हैं। अपने धन का कुछ अंश पीड़ित मानवता की सेवा के लिए दान, सहयोग देकर परोपकार कर सकते हैं। वे दूसरों को भी इसके लिए प्रेरित कर सकते हैं। इस तरह न केवल दान से होने वाले पुण्य का लाभ मिल सकेगा, मानव सेवा द्वारा सामाजिक दायित्व की पूर्ति भी हो सकेगी। धन का सदुपयोग तो होगा ही।

यदि अधिकाधिक व्यक्ति परोपकार का संकल्प लेकर दीन-असहाय-पीड़ित-विकलांग भाई-बहनों की सेवा में अपने तन, मन और धन का आंशिक योगदान भी करें तो निश्चय ही स्वस्थ, सुखी और आत्मनिर्भर समाज का सपना पूरा किया जा सकेगा। इससे मानव जीवन की सार्थकता भी सिद्ध होगी। शास्त्र वचन भी यही कहते हैं  ‘परोपकारार्थमिदं शरीरम्’ यह शरीर परोपकार के लिए है।

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