क्रोध, अंहकार छोड़ोगे तो जिओगे 100 साल

Edited By ,Updated: 22 Jan, 2015 07:59 AM

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सनातन धर्म के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति की आयु सौ वर्ष तय की गई है। प्राचीन काल में व्यक्ति की औसत उम्र थी सौ वर्ष मगर आज के दौर में बहुत ही कम व्यक्ति हैं जो सौ वर्ष की आयु तक जीवित रहते हैं।

सनातन धर्म के मतानुसार प्रत्येक व्यक्ति की आयु सौ वर्ष तय की गई है। प्राचीन काल में व्यक्ति की औसत उम्र थी सौ वर्ष मगर आज के दौर में बहुत ही कम व्यक्ति हैं जो सौ वर्ष की आयु तक जीवित रहते हैं। ज्यादातर व्यक्ति 60 साल की उम्र तक आते-आते बहुत से रोगों से पीड़ित हो जाते हैं और मृत्यु का ग्रास बन जाते हैं।

क्या आपने कभी विचार किया है शास्त्रों द्वारा कहा गया आज के दौर में झूठ क्यों सिद्ध हो रहा है। महाभारत काल के समय में यह विचार धृतराष्ट्र के मन में आया उन्होंने अपनी जिज्ञासा का समाधान करने के लिए महात्मा विदुर से पूछा,"अगर हमारे शास्त्रों में व्यक्ति की उम्र सौ वर्ष तय की गई है तो इससे पहले कोई व्यक्ति मृत्यु का ग्रास क्यों बन जाता है?"

इस प्रश्न के उत्तर में विदुर जी ने कुछ कारण बताए जिससे व्यक्ति सौ वर्ष की आयु भोगने से पहले ही मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। आईए जानें क्या थे वो कारण

लोगों में अहंकार की प्रवृति बहुत बुरी तरह बढ़ रही है। जहां अहंकार पनपता है समर्पण कम होता चला जाता है। भगवान अपने भक्त का अहंकार कभी सहन नहीं करते। न तो स्वयं अहंकारी बनें न कभी अहंकारी का साथ देकर पाप के भागी बनें। 

सभी प्रकार के कम्युनिकेशंस में हमारा शरीर शामिल होता है और कभी-कभी तो बहुत गहराई के साथ। जब हम शब्दों के सहारे बोलते हैं तब हमारे शरीर का प्रत्येक फाइबर भी बोल रहा होता है। व्यक्ति का कम या ज्यादा बोलना प्रत्यक्ष रूप से मानसिक स्वास्थ्य को ही प्रभावित करता है। आध्यात्मिक रुझान वाले लोग अपनी दिनचर्या में मौन को शामिल करते हैं। जितना आवश्यक हो, उतना ही बोलें की युक्ति पर अमल करें। 

क्रोधी आदमी किसी बात का ठीक अर्थ नहीं समझता। वह अंधकार में रहता है। वह अपना होश खो बैठता है। वह मुंह से कुछ भी बक देता है। उसे किसी बात की शर्म नहीं रहती। क्रोध को वैसे ही उतार फैंके जैसे सर्प अपने केंचुल को। खाल निकालना केंचुल छोड़ने के सामान नहीं है, अधिक आसक्ति यानी कि अधिक पीड़ा। 

किसी भी व्यक्ति को संसार में बांधे रखने का काम मोह करता है क्योंकि यह मन का एक विकार है। एक होता है लौकिक प्रेम यानी सांसारिक प्रेम और दूसरा होता है अलौकिक प्रेम यानी ईश्वरीय प्रेम। सांसारिक प्रेम मोह कहलाता है और ईश्वरीय प्रेम, प्रेम कहलाता है। इसी मोह की वजह से व्यक्ति कभी सुखी, तो कभी दुखी होता रहता है। 

अपने ही हित में सोचने वाले व्यक्ति समय-समय पर मृत्यु तुल्य कष्ट पाते हैं। कभी-कभी समय के फेर से मित्र शत्रु बन जाता है और शत्रु भी मित्र हो जाता है, क्योंकि स्वार्थ बड़ा बलवान है।

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