दैवीए शक्ति युक्त फूल का न करें अपमान अन्यथा महालक्ष्मी छोड़ देंगी आपका साथ

Edited By ,Updated: 20 Feb, 2015 08:22 AM

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फूलों में दैवीए शक्तियां विद्यमान होती हैं जो पवित्र भक्त की शक्ति को बढ़ा देती हैं। यह आंखों से दिखाई नहीं देती यह सतही रूप से समझने की बात है।

फूलों में दैवीए शक्तियां विद्यमान होती हैं जो पवित्र भक्त की शक्ति को बढ़ा देती हैं। यह आंखों से दिखाई नहीं देती यह सतही रूप से समझने की बात है। इनसे ऐसा  आशीर्वाद प्राप्त होता है जिससे जीवन में श्री, सौभाग्य और लक्ष्मी का वास होता है। 
 
जगत रचियता भगवान कृष्ण को वैजयंती के फूल बहुत प्रिय हैं। तभी तो भक्त उन्हें प्रसन्न करने के लिए वैजयंती माला अर्पित करते हैं। एक कथा के अनुसार इन्द्र ने अंहकार वश वैजयंती माला का अपमान किया था परिणामस्वरूप महालक्ष्मी उनसे रूष्ट हो गई और उन्हें दर-दर भटकना पड़ा था। 
 
देवराज इन्द्र अपने हाथी ऐरावत पर भ्रमण कर रहे थे। मार्ग में उनकी भेंट महर्षि दुर्वासा से हुई। उन्होंने इन्द्र को अपने गले से पुष्प माला उतार कर भेंट स्वरूप दे दी। इन्द्र ने अभिमान वश उस पुष्प माला को ऐरावत के गले में डाल दिया और ऐरावत ने उसे गले से उतार कर अपने पैरों तले रौंद डाला। अपने द्वारा दी हुई भेंट का अपमान देखकर महर्षि दुर्वासा को बहुत क्रोध आया। उन्होंने इन्द्र को लक्ष्मीहीन होने का श्राप दे दिया। 
 
महर्षि दुर्वासा के श्राप के प्रभाव से लक्ष्मीहीन इन्द्र दैत्यों के राजा बलि से युद्ध में हार गए। जिसके परिणास्वरूप बलि ने तीनों लोकों पर अपना अधिपत्य स्थापित कर लिया। हताश और निराश हुए देवता ब्रह्मा जी को साथ लेकर श्री हरि के आश्रय में गए और उन से अपना स्वर्गलोक वापिस पाने के लिए प्रार्थना करने लगे। 
 
श्री हरि ने कहा," आप सभी देवतागण दैत्यों से सुलह कर लें और उनका सहयोग पाकर मंदराचल को मथानी तथा वासुकी नाग को रस्सी बनाकर क्षीरसागर का मंथन करें। समुद्र मंथन से जो अमृत प्राप्त होगा उसे पिलाकर मैं आप सभी देवताओं को अजर अमर कर दूंगा तत्पश्चात ही देवता दैत्यों का विनाश करके पुनः स्वर्ग का अधिपत्य पा सकेंगे।
 
इन्द्र दैत्यों के राजा बलि के पास गए और उनके समक्ष समुद्र मंथन का प्रस्ताव रखा। अमृत के लालच में आकर दैत्य देवताओं के साथ मिल गए। देवताओं और दैत्यों ने अपनी पूरी शक्ति लगाकर मंदराचल पर्वत को उठाकर समुद्र तट पर लेकर जाने की चेष्टा करी परंतु अशक्त रहे। सभी मिल कर श्री हरि का ध्यान करने लगे। भक्तों की पुकार पर श्री हरि चले आए। 
 
उन्होंने क्रीड़ा करना आरंभ किया और भारी मंदराचल पर्वत को उठाकर गरुण पर स्थापित किया एवं पल भर में क्षीरसागर के तट पर पहुंचा दिया। मंदराचल को मथानी एवं वासुकी नाग की रस्सी बनाकर समुद्र मंथन का शुभ कार्य आरंभ हुआ। श्री हरि की नजर मथानी पर पड़ी जोकि अंदर की ओर धंसती चली जा रही थी। यह देखकर श्री हरि ने स्वयं कच्छप रूप में मंदराचल को मौलिकता प्रदान की। 
 
शास्त्रों में वर्णित है समुद्र मंथन में सबसे पहले विष निकला, जिसकी उग्र लपटों से सभी प्राणियों के प्राण संकट में पड़ गए। जिसे भगवान शिव ने अपने कंठ में धारण किया उसे अपने ऊपर हावी नहीं होने दिया। जिससे उनका कण्ठ नीला हो गया और वे नीलकण्ठ कहलाए।
 
तत्पश्चात समुद्र मंथन से लक्ष्मी, कौस्तुभ, पारिजात, सुरा, धन्वन्तरि, चंद्रमा, पुष्पक, ऐरावत, पांचजन्य, शंख, रम्भा, कामधेनु, उच्चैः श्रवा और और अंत में अमृत कुंभ निकला जिसे लेकर धन्वन्तरि जी आए। उनके हाथों से अमृत कलश छीनकर दैत्य भागने लगे ताकि देवताओं से पूर्व अमृतपान करके वह अमर हो जाएं। दैत्यों के बीच कलश के लिए झगड़ा शुरू हो गया और देवता हताश खड़े थे।
 
श्री हरि अति सुंदर नारी रूप धारण करके देवता और दानवों के बीच पहुंच गए। इनके रूप पर मोहित होकर दानवों ने अमृत का कलश इन्हें सौंप दिया। मोहिनी रूप धारी भगवान ने कहा," मैं जैसे भी विभाजन का कार्य करूं, चाहे वह उचित हो या अनुचित, तुम लोग बीच में बाधा उत्पन्न न करने का वचन दो तभी मैं इस काम को करूंगी।"
 
सभी ने मोहिनी रूपी भगवान की बात मान ली। देवता और दैत्य अलग- अलग पंक्तियों में बैठ गए। मोहिनी रूप धारण करके श्री हरि ने सारा अमृत देवताओं को पिला दिया। जिससे देवता अमर हो गए और उन्हें अपना स्वर्ग वापस मिल गया।

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