Edited By ,Updated: 18 Mar, 2015 04:43 PM
हमारे विवेकी मन से हटकर एक मन ऐसा होता है जो अंधेरा ही अंधेरा देता है और जिसमें खुलेआम ईमान बेचकर शोषण, अन्याय और अत्याचार करने को उकसाया जाता है।
हमारे विवेकी मन से हटकर एक मन ऐसा होता है जो अंधेरा ही अंधेरा देता है और जिसमें खुलेआम ईमान बेचकर शोषण, अन्याय और अत्याचार करने को उकसाया जाता है। ऐसा व्यक्ति मजबूर नहीं, चालाक होता है। उसके भीतर करुणा सूख जाती है, सौहार्द मिट जाता है, प्रेम ओझल हो जाता है और कृतज्ञताएं चूक जाती हैं।
औरों को दुखी कर स्वयं सुख बटोरने की मानसिकता को त्यागना ही जीवन का आदर्श स्वरूप है। ऐसा करने से अद्भुत शांति मिलती है।
एक भारतीय व्यक्ति लंदन में अपने एक मित्र के घर ठहरा हुआ था। उसका मित्र मिल्क डिस्ट्रिब्यूशन करता था। एक दिन उसकी लड़की बहुत उदास थी। भारतीय मित्र ने पूछा, ‘‘बहन! आज इतनी उदास क्यों हो?’’
वह बोली, ‘‘क्या करूं, दूध की सप्लाई पूरी करनी है और मेरे पास आज दूध कम है।’’
मित्र ने कहा, ‘‘यह इतनी चिंतित और इतनी उदास होने की बात नहीं है। थोड़ा-सा पानी मिला दो, तुम्हारी समस्या खत्म हो जाएगी।’’
यह सुनते ही वह अपने पिता के पास जाकर बोली, ‘‘किस राक्षस को अपने घर में ठहराया है, क्या मैं अपने राष्ट्र के नागरिकों के स्वास्थ्य के प्रति अन्याय करूं?’’
हद से ज्यादा स्वार्थीपन और एक-दूसरे से आगे निकलने की होड़ में कई बार लोगों को यह पता ही नहीं चलता कि वे कब भ्रष्ट, अमानवीय और अराजक हो जाते हैं। यह जीवन मूल्यों और नैतिकता के बिखरने का ही परिणाम है कि मनुष्य जानते हुए भी कभी-कभी ऐसे कुकर्म कर बैठता है कि देखने वाला सहसा विश्वास नहीं कर पाता कि यह वही व्यक्ति है जिसे कल उसने सज्जनता, शिष्टता और ईमानदारी से घिरा देखा था।