Edited By ,Updated: 10 Apr, 2015 08:27 AM
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परंतप।। 2।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदु:।
स कालेनेह महता योगो नष्ट: परंतप।। 2।।
एवम्—इस प्रकार; परम्परा—गुरु-परम्परा से; प्राप्तम्—प्राप्त; इमम्—इस विज्ञान को; राज-ऋषय:—साधु राजाओं ने; विदु:—जाना; स:—वह ज्ञान; कालेन—कालक्रम से; इह—इस संसार में; महता—महान्; योग:—परमेश्वर के साथ अपने संबंध का विज्ञान, योग विद्या; नष्ट:—छिन्न-भिन्न हो गया; परन्तप—हे शत्रुओं को दमन करने वाले, अर्जुन।
अनुवाद : इस प्रकार यह परम विज्ञान गुरु-परम्परा द्वारा प्राप्त किया गया और राजर्षियों ने इसी विधि से इसे समझा। किन्तु कालक्रम में यह परम्परा छिन्न हो गई, अत: यह विज्ञान यथारूप में लुप्त हो गया लगता है।
तात्पर्य : यहां स्पष्ट कहा गया है कि गीता विशेष रूप से राजर्षियों के लिए थी क्योंकि वे इसका उपयोग प्रजा के ऊपर शासन करने में करते थे। निश्चय ही भगवद्गीता कभी भी आसुरी पुरुषों के लिए नहीं थी जिनसे किसी को भी इसका लाभ न मिलता और जो अपनी-अपनी सनक के अनुसार विभिन्न प्रकार की विवेचना करते। अत: जैसे ही असाधु भाष्यकारों के निहित स्वार्थों से गीता का मूल उद्देश्य उच्छिन्न हो वैसे ही पुन: गुरु-परम्परा स्थापित करने की आवश्यकता प्रतीत हुई।
(क्रमश:)