शहीदों के सरताज पंचम पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी, पुण्यतिथि आज

Edited By ,Updated: 22 May, 2015 09:18 AM

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भारतीय संत परम्परा में पंचम पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी का विशेष तथा महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी उत्कृष्ट बाणी तथा अनुपम कुर्बानी ने सिखों के जीवन में जो रंग भर कर उसे गौरवमयी बनाया, वह इतिहास के सुनहरे पृष्ठों से प्रकट है।

भारतीय संत परम्परा में पंचम पातशाह श्री गुरु अर्जुन देव जी का विशेष तथा महत्वपूर्ण स्थान है। इनकी उत्कृष्ट बाणी तथा अनुपम कुर्बानी ने सिखों के जीवन में जो रंग भर कर उसे गौरवमयी बनाया, वह इतिहास के सुनहरे पृष्ठों से प्रकट है। गुरु जी ने लोगों को सामाजिक कल्याण तथा परमार्थिक बोध का एहसास करवाया। वाणीकार तथा संगीतकार होने के अतिरिक्त गुरु जी विद्वान संपादक भी थे जिन्होंने श्री गुरु ग्रंथ साहिब के रूप में बाणी का अद्वितीय संग्रह तैयार करके भारतीय संस्कृति पर महान उपकार किया।

श्री गुरु अर्जुन देव जी ने श्री गुरु रामदास जी और माता भानी जी के घर 19 वैसाख संवत् 1620 तद्नुसार 15 अप्रैल 1563 ई. को गोइंदवाल साहिब जिला तरनतारन (पंजाब) में जन्म लिया। श्री गुरु अमरदास जी आपके नाना थे। आप श्री गुरु रामदास जी के तीसरे और सबसे छोटे सुपुत्र थे। आपके दो बड़े भाई-प्रिथीचंद और महादेव थे। आपका बचपन प्रकृति के खुले आंगन में दरिया ब्यास के किनारे व्यतीत हुआ। गुरु जी अपने ननिहाल में पैदा हुए। गुरमति की घुट्टी आपको अपने घर में ही मिली।

बचपन में 11 साल तक श्री गुरु  अर्जुन देव जी गोइंदवाल साहिब में ही रहे। इनके ऊपर अपने नाना जी के आध्यात्मिक जीवन का गहरा प्रभाव पड़ा। गुरबाणी-कीर्तन और नाम-सिमरन का प्रवाह तो घर में चल ही रहा था,  जिससे आपने बचपन से ही प्रभु-भक्ति को जीवन का एकमात्र आधार बना लिया। अगले पांच वर्ष आप अपने पिता श्री गुरु रामदास जी के पास श्री अमृतसर में रहे। 

श्री गुरु अर्जुन देव जी ने श्री गुरु अमरदास जी के संरक्षण में उनके आदेश अनुसार बाबा बुड्ढा जी से गुरमुखी विद्या प्राप्त की और गुरबाणी-चिंतन किया। घर में आपको आध्यात्मिक विद्या सहज स्वाभाविक ही मिलती रही। भाई गुरदास जी और भाई सावन मल आपके सहपाठी थे। देवनागरी, संस्कृत की विद्या आपने पंडित बेणी से प्राप्त की। गांव के स्कूल से आपने फारसी की विद्या प्राप्त की। पांच वर्षों में आपने गुरमुखी, देवनागरी, संस्कृत और फारसी का ज्ञान प्राप्त कर लिया। आपने श्री गुरु ग्रंथ साहिब के संपादन का कार्य सुव्यवस्थित ढंग से किया।

श्री गुरु अर्जुन देव जी बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे। आप क्षमा, सहनशीलता, नम्रता, सहृदयता और कोमलता की साकार मूर्त थे। आपके  भाई प्रिथीचंद ने आपके रास्ते में कई बार अवरोध खड़े करने का प्रयत्न किया। आप आयु में चाहे अपने दोनों भाइयों से छोटे थे परंतु ज्ञान और गुणों में आप उनसे बहुत ऊंचे थे। गुरु जी का सारा जीवन निर्भय और निरवैर  रहने का प्रत्यक्ष प्रमाण है। आपका न तो किसी से कोई वैर था और न ही आपको किसी का भय था :

ना को मेरा दुसमनु रहिआ ना हम किस के बैराई। सभु को मीतु  हम आपन कीना हम सभना के साजन (पन्ना 671)

श्री गुरु अर्जुन देव जी का जीवन-इतिहास इस तथ्य का साक्षी है कि यह कला प्रेमी थे। आप काव्य-कला, संगीत-कला, वास्तु-कला और संपादन कला से जुड़े हुए थे। श्री गुरु नानक देव जी से चली आ रही कीर्तन परम्परा को आपने ज्यों का त्यों कायम रखा। भाई सत्ता जी और भाई बलवंड जी आपके दरबार  में कीर्तन करते थे। गुरु जी कीर्तन करने वालों का आदर करते थे। एक दिन भाई सत्ता जी और भाई बलवंड जी ने गुरु-जी से अपनी बहन के विवाह के लिए कीर्तन की एक दिन की भेंट मांग ली। गुरु जी ने देने को सहमति दे दी। संयोगवश उस दिन कीर्तन-भेंट अन्य दिनों के मुकाबले कम एकत्र हुई। यह देखकर दोनों क्रोधित हो उठे और अगले दिन कीर्तन करने नहीं आए तथा गुरु घर की निंदा करनी शुरू कर दी। गुरु जी के बुलाने पर भी उन्होंने आने से इंकार कर दिया। गुरु जी ने स्वयं कीर्तन किया और संगत को भी कीर्तन करने का आदेश दिया। कुछ समय बाद भाई सत्ता जी और भाई बलवंड जी को अपने किए का एहसास हुआ और वे ग्लानि महसूस करने लगे। उन्होंने भाई लद्धा जी के माध्यम से गुरु जी से क्षमा मांगी और पुन: गुरु-घर में कीर्तन करना शुरू कर दिया।

श्री गुरु अर्जुन देव जी की शहीदी उनकी निर्भयता का अनपुम उदाहरण है। आपने मानवता के हित में दबी कुचली, पीड़ित एवं मासूम जनता को जालिम और निर्दयी साम्राज्य के विरुद्ध जागरूक करने के लिए अपना बलिदान दिया। श्री गुरु अर्जुन देव जी ने गुरु साहिबान के अलावा गुरमति विचारधारा से मेल खाती बाणी को भी श्री गुरु ग्रंथ साहिब में स्थान दिया। मुगल बादशाह जहांगीर ने गुरु जी के इस पुनीत कार्य पर संदेह प्रकट किया तथा श्री गुरु ग्रंथ साहिब की तैयारी पर एतराज जताया। बादशाह के कुछ वजीरों आदि ने भी उसे गुरु जी के विरुद्ध भड़काने में कोई कसर न छोड़ी।

उकसाहट में जाकर जहांगीर ने गुरु जी को लाहौर में बंदी बना लिया। लाहौर जाने से पहले आपने श्री गुरु हरगोबिंद साहिब को गुरगद्दी सौंपी और पांच सिखों को अपने साथ लेकर लाहौर चले गए। आप पर जुर्माना किया गया। गुरु जी ने जुर्माना देने से इंकार कर दिया। इससे क्रोधित होकर गुरु साहिब को शहीद करने के लिए फरमान जारी कर दिया गया। चंदू आदि ने नाजिम से कह कर गुरु जी को गर्म-लौह पर बिठाया और शीश पर गर्म-गर्म रेत डाली गई। ज्येष्ठ माह की कड़क धूप में उबलते हुए पानी में बिठाया। गुरु जी अपनी सहनशक्ति से सारी यातनाएं सहन करते रहे। इस प्रकार गुरु जी को पांच दिन तक निरंतर कष्ट दिए जाते रहे। बाद में और प्रताडि़त करने हेतु गुरु जी को रावी नदी में स्नान कराया गया। इस प्रकार अनेक यातनाओं को अपने तन पर झेलते हुए गुरु जी 1 आषाढ़, संवत् 1663 तदनुसार 30 मई 1606 ई.  को शहादत प्राप्त कर गए।

श्री गुरु अर्जुन देव जी सिख पंथ में प्रथम शहीद बनकर शहीदों के सरताज बनें। आप शांत एवं गंभीर स्वभाव के स्वामी थे तथा दिन-रात संगत-सेवा में लीन रहते थे। आप सभी धर्मों के प्रति अथाह स्नेह रखते थे। मानव-कल्याण के लिए आपने आजीवन शुभ कार्य किए। आपने बाणी के माध्यम से संतप्त मानवता को शांति का संदेश दिया। इनके द्वारा 30 रोगों में उच्चरित 2313 शबद श्री गुरु ग्रंथ साहिब में अंकित हैं।   

—प्रीतइंद्र कौर   

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