ऐसी सोच दिला सकती है आपको यज्ञ का फल

Edited By ,Updated: 16 Jun, 2015 12:44 PM

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एक भाव होता है ‘मेरा’, दूसरा है ‘मेरे लिए’ और तीसरा है ‘सबके लिए’। ‘मेरा’ में इंसान केवल अपने बारे में ही सोचता रहता है और यह पक्का कर लेता है कि

एक भाव होता है ‘मेरा’, दूसरा है ‘मेरे लिए’ और तीसरा है ‘सबके लिए’। ‘मेरा’ में इंसान केवल अपने बारे में ही सोचता रहता है और यह पक्का कर लेता है कि मेरे पास जो है, वह केवल मेरा है, इस पर केवल मेरा ही अधिकार है। यह सोच अज्ञानी लोगों की होती है, जो हमारे अहंकार को बनाए रखती है। 
 
‘मेरे लिए’, अर्थात इंसान सोचता है कि जो भी मेरे पास है, यह मेरा नहीं बल्कि मेरे लिए है। इसका स्वामी मैं नहीं, बल्कि ये सब मुझे इस्तेमाल करने के लिए मिला है। यह सोच मध्यम दर्जे के लोगों की होती है।
 
तीसरा भाव है ‘सबके लिए’। मतलब जो मेरे पास है वह केवल मेरा ही नहीं बल्कि सबके लिए है। यह विचार उत्तम दर्जे के इंसानों का होता है। इसी को यज्ञ कहा जाता है। जब मन में सबकी भलाई का भाव हो वही यज्ञ है। जो सबका ध्यान रखकर बाद में अपना सोचता है, वही श्रेष्ठ इंसान है। इस तरह का यज्ञ अहंकार को गला देता है। ऐसी भावना के साथ साधना करने वाला ब्रह्म को पा लेता है। जो मनुष्य केवल मेरा-मेरा में ही फंसा रहता है, वह न तो इस जन्म में सुख पाता है और न ही मरने के बाद परलोक में। 

 

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