भगवान से अपने पापों और अपराधों की क्षमा कैसे मांगे?

Edited By ,Updated: 23 Jun, 2015 07:25 AM

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हम दूसरों की भूल को यदि मानस पटल पर पत्थर की लकीर की तरह अंकित कर लेते हैं और उसे मन से मिटाने अर्थात भूलने का नाम ही नहीं लेते तो अपना ही मन बोझिल अथवा छिद्र-छिद्र कर लेते हैं। भूलों को मन में इकट्ठा करना-यह कैसा शौक है। सुलगती हुई राख या सड़ते हुए...

हम दूसरों की भूल को यदि मानस पटल पर पत्थर की लकीर की तरह अंकित कर लेते हैं और उसे मन से मिटाने अर्थात भूलने का नाम ही नहीं लेते तो अपना ही मन बोझिल अथवा छिद्र-छिद्र कर लेते हैं। भूलों को मन में इकट्ठा करना-यह कैसा शौक है। सुलगती हुई राख या सड़ते हुए कचरे को मन में भर देना तो गोया अपनी ही बुद्धि का दिवालियापन है। दूसरे की भूल का अपने मन को शूल अथवा आंख का बबूल बना लेना तो अपने लिए स्वयं सूली तैयार करना अथवा कांटों की शैया तैयार करना है। फिर यदि हम दूसरों की भूलों के लिए उन्हें क्षमा नहीं करते तो भगवान से अपने पापों और अपराधों की थोड़ी भी क्षमा की आशा करने के योग्य कैसे बन सकते हैं?

अत: हम मन को विशाल अथवा विराट करें और क्षमा करें। यह कलियुग का अंतिम चरण है, भूल तो प्राय: सभी करते हैं। खराब आदतें भी थोड़ी-बहुत सभी में हैं इसलिए क्षमा करो। अब अपने जीवन में क्षमा का अध्याय खोलो और कुछ दान नहीं करते तो क्षमा दान ही कर दो।

क्षमा न करने से व्यक्ति स्वयं ही ‘कूड़ेदान’ या ‘नादान’ (बेसमझ) बन जाता है। दयालु प्रभु के दयालु बच्चे बनो। ‘क्षमा’ का अर्थ यह नहीं है कि धोखेबाज, मक्कार, अत्याचारी, दुष्ट, निर्दयी व्यक्ति को ऐसा क्षमा कर दो कि वह आपको ही निगल जाए। दुष्ट को बार-बार दुष्टता करने की खुली छूट मत दो। क्षमा करने का यह भाव भी नहीं है कि आप तलवार उठा कर उसे यहां से सीधे धर्मराजपुरी में भेज दो जो कि अभी खुली ही नहीं। किसी ने कितनी बड़ी भूल की है, कितनी बार वह भूल दोहराई है, उस व्यक्ति का इरादा क्या है और वह स्वयं स्वभाव का कैसा है-यह सब देख कर उसे माफ करो वर्ना वह आपको ही साफ कर देगा या आप पर अपना हाथ साफ कर देगा। 

अन्य प्रकार के दान की तरह क्षमा दान भी पात्र को करो और दूसरे को क्षमा देने पर कुछ सतर्क होकर देखो कि वह क्षमा पाकर आक्रमण की तैयारी करता है या सुधरता है। मन से क्षमा कर दो परन्तु अपने बचाव का उचित प्रबंध कर लो।

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