कृष्णावतार

Edited By ,Updated: 28 Jun, 2015 12:50 PM

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‘‘राजन, दुख तो इसी बात का है कि आप जो सोचते हैं अपने हित की ही सोचते हैं । स्थिति को संभालने का प्रयत्न कभी किया ही नहीं आपने । जिस समय कपट जुए में सब कुछ हार कर पांचों पांडव कामेक वन में जाकर रहने....

‘‘राजन, दुख तो इसी बात का है कि आप जो सोचते हैं अपने हित की ही सोचते हैं । स्थिति को संभालने का प्रयत्न कभी किया ही नहीं आपने । जिस समय कपट जुए में सब कुछ हार कर पांचों पांडव कामेक वन में जाकर रहने लगे थे तो भगवान कृष्ण ने वहां जाकर पांडवों को आश्वासन दिया था । इसलिए भगवान कृष्ण को अपने पक्ष में करने और या उनके निष्पक्ष रहने की बात तो आप भूल ही जाइए । दूसरे राजाओं का सामना करने का साहस भी भला कौन करेगा ?’’

‘‘यही तो मैं भी कहता हूं संजय । मैं जानता हूं कि कृष्ण वासुदेव यदि युद्ध में शामिल न भी हुए तो भी उनकी हार्दिक सहानुभूति तो पांडवों के लिए ही रहेगी ।’’ धृतराष्ट्र और आगे बोले, ‘‘किन्तु संजय, इस समस्या को सुलझाने वाले उपाय वाली बात मेरी समझ में अब भी नहीं आई । क्या सचमुच किसी युक्ति से संघर्ष टल सकता है? उन्हें उनका राज्य भी न लौटाना पड़े और संग्राम भी न हो ।’’

‘‘नहीं राजन, भगवान वेद व्यास जी और महात्मा विदुर की भविष्यवाणी का एक-एक शब्द सत्य सिद्ध होकर रहेगा । आप हर बात उल्टी ही सोचते हैं । क्षमा करें, मैं आपका छोटा सा सेवक हूं । आप चाहे मेरा शीश ही उतार लें मैं असत्य बात नहीं कहूंगा ।’’ संजय ने कहा ।‘‘तुम भी रूठ गए संजय! विदुर तो सदा से ही पांडवों का ही गुणगान करते हैं । इस समस्या को सुलझाने की बात तुमने कही तो मैंने भी पूछ लिया । यही तो मैं भी कहता हूं संजय संघर्ष किसी अन्य उपाय से टल सके तो वह उपाय तुम बताओ।’’ (क्रमश:)

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