Edited By ,Updated: 21 Aug, 2015 03:27 PM
जगद् गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी के शिष्य परम पूज्यपाद श्रील भक्ति रक्षक श्रीधर देव गोस्वामी जी महाराज प्रवचन कर रहे थे।
जगद् गुरु श्रील भक्ति सिद्धान्त सरस्वती गोस्वामी ठाकुर प्रभुपाद जी के शिष्य परम पूज्यपाद श्रील भक्ति रक्षक श्रीधर देव गोस्वामी जी महाराज प्रवचन कर रहे थे। प्रवचन के दौरान आपने बताया कि हमें संसार को भोग करने की भावना को त्याग तो करना ही होगा, संसार को त्याग करने की भावना का भी त्याग करना होगा। अपना प्रवचन पूरा करके आप अपने कमरे में चले गए।
प्रात: स्मरणीय परम पूज्यपाद श्रील भक्ति बल्लभ तीर्थ गोस्वामी महाराज जी ने बताया कि मैं तब नया-नया मठ में आया था और तब मेरा नाम कृष्ण बल्लभ दास ब्रह्मचारी था। मैं ये बात सुन कर हैरान हो गया क्योंकि घर में अपने पिता जी से मैंने सुना था कि गीता त्याग सिखाती है इसलिए मेरे मन में यह जानने कि उत्सुकता हुई कि भोगों को त्यागना तो ठीक है, परन्तु त्याग को कैसे त्यागेंगे?
इस जिज्ञासा को लेकर मैं पूज्यपाद श्रीधर महाराजजी के कमरे में गया। मैंने उनको प्रणाम किया व विनम्र भाषा में एक प्रश्न पूछने की आज्ञा मांगी। अनुमति मिलने पर मैंने पूछा - महाराज जी ! आपने अभी-अभी अपने प्रवचन में बताया कि भोग को त्यागो और त्याग को भी त्यागो। भोग के त्याग को तो मैं समझता हूं किन्तु त्याग को कैसे……? मैंने अपना वाक्य अधूरा ही छोड़ दिया।
आपने मुस्कुराते हुए कहा, तुम्हारा क्या है, जो तुम त्यागना चाहते हो। सब कुछ तो श्रीकृष्ण का है। ये शरीर, मन, बुद्धि, इत्यादि, सब के स्वामी तो श्रीकृष्ण ही हैंं। यहां तक कि ये संसार इसकी वस्तुएं सब कुछ उन्हीं का तो है। जो हमारा है ही नहीं उसको हम कैसे त्याग सकते हैं?
हमें संसारिक 'मैं ' और 'मेरेपन' की भावना से ऊपर उठना होगा। हमें हर प्रकार से श्रीकृष्ण की प्रसन्नता के लिए कार्य करना होगा। इन सब वस्तुओं को तथा अपने आप को उनके स्वामी श्रीकृष्ण की सेवा में लगाने से ही हमारा कल्याण होगा।
श्री भक्ति विचार विष्णु जी महाराज
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