Happy Baisakhi: इतिहास के झरोखे से जानें, कब और कैसे हुआ बैसाखी का आरंभ

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 13 Apr, 2023 06:12 PM

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हमारा देश विभिन्न त्यौहारों का एक खूबसूरत गुलदस्ता है। इस गुलदस्ते का एक सुंदर फूल है ‘बैसाखी’। इस पर्व का संबंध गेहूं की फसल की कटाई से है।

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Happy Baisakhi 2023: हमारा देश विभिन्न त्यौहारों का एक खूबसूरत गुलदस्ता है। इस गुलदस्ते का एक सुंदर फूल है ‘बैसाखी’। इस पर्व का संबंध गेहूं की फसल की कटाई से है। भारतीय मिथक के अनुसार बैसाखी के दिन व्यास ऋषि ने ब्रह्मा द्वारा रचे चार वेदों का पवित्र पाठ सम्पूर्ण किया था। इसी दिन ही राजा जनक ने एक महान यज्ञ का आयोजन किया था जिसमें अवधूत अष्टवक्र ने राजा को ज्ञान प्रदान किया था।

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‘बैसाखी’ बैसाख की संक्रांति को कहा जाता है। इस दिन को सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है। इसी दिन सिखों के दसवें गुरु श्री गुरु गोबिंद सिंह जी ने 1699 ईस्वी को आनंदपुर साहिब में ‘पांच प्यारों’ को अमृत छकाकर ‘खालसा पंथ’ की सृजना की थी। पांच प्यारों को अमृत छकाने का मूल उद्देश्य गुलाम मानसिकता की जिंदगी व्यतीत कर रही जनता में ‘चढ़दी कला’ अर्थात जोश और शक्ति की भावना भर कर आत्मबल और शक्ति पैदा करना था ताकि हर प्रकार के जुल्म का डट कर सामना कर सके। 

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हमारे देश की स्वतंत्रता का संबंध भी किसी न किसी रूप में बैसाखी से ही जा जुड़ता है। सन् 1919 में अमृतसर में श्री हरिमंदिर साहिब के पास जलियांवाला बाग में क्रूर अंग्रेज जनरल डायर ने जिस दिन दुखदायक घटना को अंजाम दिया था वह भी बैसाखी का ही दिन था।
 
बैसाखी के त्यौहार से हमारे धार्मिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और ऐतिहासिक प्रसंग जुड़े हुए हैं। पंजाब में बैसाखी पर प्रांतीय स्तर के लगभग 1100 बड़े और छोटे मेले और त्यौहार मनाए जाते हैं। अमृतसर की बैसाखी का तो आनंद लेने के लिए देश-विदेश से बड़ी संख्या में लोग आते हैं। सिख भाईचारे में बैसाखी का त्यौहार मनाने की परम्परा तीसरे गुरु श्री गुरु अमरदास जी के आदेश से आरंभ हुई थी। अमृतसर में 1589 ई. में पहली बार यह पर्व मनाया गया। उस समय श्री हरिमंदिर साहिब अमृतसर में पवित्र सरोवर का कार्य सम्पूर्ण हुआ था।
 
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विभाजन से पूर्व यह त्यौहार पाकिस्तान के अलग-अलग स्थानों में मनाया जाता था। आज भी वहां के गुरुद्वारों में यह परम्परा चलती आ रही है। पंजाब में श्री आनंदपुर साहब, दमदमा साहिब (रोपड़), तलवंडी साबो (भटिंडा), करतारपुर (जालन्धर), बहादुरगढ़ (पटियाला) और पंडोरी महंता दी (गुरदासपुर) के बैसाखी मेलों में तो पूरा पंजाब और इसके पड़ोसी प्रांतों-हिमाचल प्रदेश, हरियाणा और राजस्थान आदि से भी बड़ी संख्या में लोग श्रद्धा भावना से आते हैं। पवित्र सरोवरों, तालाबों और नदियों में स्नान करके श्रद्धालु गुरुवाणी का कीर्तन श्रवण करते हैं। 
 
बैसाखी का संबंध फसल के पकने की खुशी का प्रतीक है। इसी दिन गेहूं की पक्की फसल को द्रान्ति से काटने की शुरूआत होती है। किसान इसलिए खुश हैं कि अब फसल की रखवाली करने की चिंता समाप्त हो गई है। बैसाखी के पर्व पर लोगों का कारोबार भी खूब चलता है। इन मेलों में बड़े-बड़े पशु मेले आयोजित किए जाते हैं। लोग अच्छी नस्ल के पशुओं की खरीदो-फरोख्त करके अपने कारोबार में वृद्धि करते हैं। मेले में मिठाइयों के अम्बार नजर आते हैं। बच्चे पसंदीदा खिलौने लेकर प्रसन्नता से घरों को लौटते हैं। इस तरह पूरे भारत वर्ष में हर भाईचारे के लोग मिलजुल कर बैसाखी का पर्व बड़ी धूमधाम से मनाते हैं। 
 
आज का मानव मशीन बनकर अपनी प्राचीन संस्कृति को भूलता जा रहा है। पश्चिमी संस्कृति की चकाचौंध में आकर बैसाखी के पर्व को भूलना नहीं चाहिए बल्कि इसे और ज्यादा उत्साह, श्रद्धा और उल्लास से मिलजुल कर मनाना हम सब का दायित्व है।
 
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