Edited By ,Updated: 15 Dec, 2016 11:58 AM
भगवद् गीता रूपी अमृत के वक्ता साक्षात श्री हरि विष्णु हैं। एक समय अर्जुन ने महाभारत के युद्ध के पश्चात भगवान श्री कृष्ण जी से विनयपूर्वक प्रार्थना की कि हे देवकीनंदन! जब युद्ध का अवसर उपस्थित था
भगवद् गीता रूपी अमृत के वक्ता साक्षात श्री हरि विष्णु हैं। एक समय अर्जुन ने महाभारत के युद्ध के पश्चात भगवान श्री कृष्ण जी से विनयपूर्वक प्रार्थना की कि हे देवकीनंदन! जब युद्ध का अवसर उपस्थित था, उस समय मुझे आपके महात्म्य का ज्ञान और ईश्वरीय स्वरूप का दर्शन हुआ था। किंतु केशव! स्नेहवश आपने परम कल्याणप्रद ज्ञान का उपदेश दिया था। वह सब इस समय मैं बुद्धि के दोष से भूल गया हूं। उन विषयों को सुनने के लिए बारंबार मेरे मन में उत्कण्ठा होती है, अत: आप पुन: वह ज्ञान मुझे दीजिए।
तब सम्पूर्ण लोकों के स्वामी भगवान श्री कृष्ण बोले, ‘‘हे अर्जुन! उस समय मैंने तुम्हें अत्यंत गोपनीय विषय का श्रवण कराया था और अपने स्वरूपभूत धर्म-सनातन पुरषोत्तम तत्व का बोध कराया था।’’
‘‘न शक्यं तन्मया भूयस्तथा वक्तुमशेषत:
परं हि ब्रह्म कथितं योगयुक्तेन तन्मया।’’
भगवान श्री कृष्ण बोले, ‘‘वह सब का सब उसी रूप में फिर दोहरा देना अब मेरे वश की बात नहीं है। उस समय मैंने योगयुक्त होकर परमात्म तत्व का वर्णन किया था। महर्षि वेद व्यास जी की कृपा से वह परम दुर्लभ गोपनीय ज्ञान श्री गीता जी के रूप में कलियुग में सर्व साधारण को प्राप्त हुआ। श्री शंकराचार्य जी भगवद्गीता की स्तुति में लिखते हैं-
‘‘भगवद्गीता किच्चिदधीता गंगाजल-लवकणिकापीता’’
जिसने भगवद्गीता जी का थोड़ा-सा भी अध्ययन किया है तथा गंगाजल की एक बूंद भी भक्ति भाव से ग्रहण की है, जिसने एक बार भी भगवान श्री कृष्ण का अर्चन किया है, उसकी यमराज क्या चर्चा कर सकता है। भाव अंत समय गीता, गंगा और गोविंद ही जीव के एकमात्र रक्षक हैं।