Bhishma Dwadashi 2020: जेब ढीली किए बिना, कर्मों का पुण्य हजार गुणा बढ़ाएं

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 06 Feb, 2020 07:23 AM

bhishma dwadashi 2020

आज भीष्म द्वादशी का शुभ अवसर है। हर साल माघ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी पर्व मनाया जाता है।  महाभारत के शांति पर्व से जानें कैसे जेब ढीली किए बिना भी प्राप्त किया जा सकता है, कर्मों का हजार गुणा पुण्य।

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आज भीष्म द्वादशी का शुभ अवसर है। हर साल माघ मास के शुक्ल पक्ष की द्वादशी तिथि को भीष्म द्वादशी पर्व मनाया जाता है।  महाभारत के शांति पर्व से जानें कैसे जेब ढीली किए बिना भी प्राप्त किया जा सकता है, कर्मों का हजार गुणा पुण्य। 

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युधिष्ठिर ने पूछा: पितामह! धर्म का रास्ता बहुत बड़ा है और उसकी अनेक शाखाएं हैं। इनमें से किस धर्म को आप सबसे प्रधान एवं विशेष रूप से आचरण में लाने योग्य समझते हैं, जिसका अनुष्ठान करके मैं इहलोक और परलोक में भी धर्म का फल पा सकूंगा। 

भीष्म जी ने कहा: मातापित्रोर्गुरुणां च पूजा बहुमता मम। इह युक्तो नरो लोकान यशश्च महदश्रुते॥
राजन! मुझे तो माता-पिता तथा गुरुजनों की पूजा ही अधिक महत्व की वस्तु जान पड़ती है इस लोक में इस पुण्यकार्य में संलग्न होकर मनुष्य महान यश और श्रेष्ठ लोक पाता है। (महाभारत, शांत पर्व : 108.3) 

माता,पिता और गुरुजन जिस काम के लिए आज्ञा दें उसका पालन करना ही चाहिए। इन तीनों की आज्ञा का कभी उल्लंघन न करें। जिस काम के लिए उनकी आज्ञा हो, वह धर्म ही है, ऐसा निश्चय रखना चाहिए।

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माता, पिता और गुरु- ये ही तीनों लोक हैं, ये ही तीनों आश्रम हैं, ये ही तीनों वेद हैं और ये ही तीनों अग्नियां हैं। पिता गार्हपत्य अग्नि, माता दक्षिणाग्नि और गुरु आहवनीयाग्नि हैं। लौकिक अग्रियों से माता, पिता व गुरु इन त्रिविध अग्नियों का गौरव अधिक है। इन तीनों की सेवा में यदि भूल न करोगे तो तुम तीनों लोकों को जीत लोगे। पिता की सेवा से इस लोक को, माता की सेवा से परलोक को तथा नियमपूर्वक गुरु की सेवा से ब्रह्मलोक को भी लांघ जाओगे, इसलिए तुम इनके साथ सदैव अच्छा बर्ताव करो। ऐसा करने से तुम्हें उत्तम यश, परम कल्याण और महान फल देने वाले धर्म की प्राप्ति होगी।

इनको भोजन कराने से पहले स्वयं भोजन न करना। इन पर कभी भी कोई दोषारोपण न करना और सदा इनकी सेवा में संलग्न रहना-यही सबसे उत्तम पुण्य है। इनकी सेवा से तुम र्कीत, पवित्र यश और उत्तम लोक सब कुछ प्राप्त कर लोगे।

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सर्वेतस्यादृता लोका यस्यैते त्रय आदृता:।अनादृतास्तु यस्यैते सर्वास्तस्याफला: क्रिया:॥
जिसने इन तीनों का आदर कर लिया उसके द्वारा सम्पूर्ण लोकों का आदर हो गया और जिसने इनका अनादर कर दिया उसके सम्पूर्ण शुभ कर्म निष्फल हो जाते हैं। (महाभारत, शांति पर्व : 108.92) 

जिससे इन तीनों गुरुजनों का सम्मान नहीं किया उसके लिए न यह लोक है न परलोक। उसे न इस लोक में यश मिलता है न परलोक में सुख। मैं तो सब तरह के शुभ कर्मों का अनुष्ठान करके इन गुरुजनों को ही अर्पण कर देता था। इससे उन कर्मों का पुण्य सौ गुणा और हजार गुणा बढ़ गया है तथा उसी का यह फल है कि आज तीनों लोग मेरी दृष्टि के सामने हैं।

दस श्रोत्रियों से बढ़कर हैं आचार्य (कुलगुरु), दस आचार्यों से बड़ा है उपाध्याय (विद्यागुरु), दस उपाध्यायों से अधिक महत्व रखता है पिता और दस पिताओं से भी अधिक गौरव है माता का। माता का गौरव तो सारी पृथ्वी से भी बढ़कर है। उसके समान गौरव किसी का नहीं है। मगर मेरा विश्वास ऐसा है कि आत्मतत्व का उपदेश देने वाले गुरु का दर्जा माता-पिता से भी बढ़कर है। माता-पिता तो केवल इस शरीर को जन्म देते हैं किन्तु आत्मतत्व का उपदेश देने वाले आचार्य द्वारा जो जन्म होता है वह दिव्य है, अजर-अमर है।
माता-पिता यदि कोई अपराध करें तो भी उन पर कभी हाथ नहीं उठाना चाहिए। 

यश्चावृणोत्यवितथेन कर्मणा ऋतं ब्रुवन्ननृतं सम्प्रयच्छन्।तं वै मन्यते पितरं मातरं च तस्मै न द्रुह्योत् कृतमस्य जानन्।।

जो सत्यकर्म (के द्वारा और यथार्थ उपदेश) के द्वारा पुत्र या शिष्य को कवच की भांति ढक लेता है, सत्यस्वरूप वेद का उपदेश देता है और असत्य की रोकथाम करता है, उस गुरु को ही पिता और माता समझें और उसके उपकार को जानकर कभी उससे द्रोह न करें। (महाभारत, शांति पर्व : 108.22) 

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जो लोग विद्या पढ़कर गुरु का आदर नहीं करते, निकट रहते हुए भी मन, वाणी अथवा क्रिया द्वारा गुरु की सेवा नहीं करते, उन्हें गर्भस्थ बालक की हत्या से भी बढ़कर पाप लगता है। संसार में उनसे बढ़ कर पापी दूसरा कोई नहीं है। जैसे गुरुओं का कर्तव्य है शिष्यों को आत्मोन्नति के पथ पर पहुंचाना, उसी तरह शिष्यों का धर्म है गुरुओं का पूजन करना। 

मनुष्य जिस धर्म से पिता को प्रसन्न करता है, उसी के द्वारा प्रजापिता ब्रह्मा जी भी प्रसन्न होते हैं तथा जिस बर्ताव से वह माता को प्रसन्न कर लेता है, उसी के द्वारा सम्पूर्ण पृथ्वी की पूजा हो जाती है परंतु जिस व्यवहार से शिष्य अपने गुरु को प्रसन्न कर लेता है उसके द्वारा परब्रह्म परमात्मा की पूजा सम्पन्न होती है, इसलिए गुरु माता-पिता से भी अधिक पूजनीय हैं। गुरुओं के पूजित होने पर पितरों सहित देवता और ऋषि भी प्रसन्न होते हैं, इसलिए गुरु परम पूजनीय हैं। जो लोग मन, वाणी और क्रिया द्वारा गुरु, पिता और माता से द्रोह करते हैं, उन्हें गर्भ हत्या का पाप लगता है, जगत में उनसे बढ़कर और कोई पापी नहीं है। मित्रद्रोही, कृतघ्न, स्त्री हत्यारा और गुरुघाती-इन चारों के पाप का प्रायश्चित हमारे सुनने में नहीं आया है। अत: माता, पिता और गुरु की सेवा ही मनुष्य के लिए परम कल्याणकारी मार्ग है। इससे बढ़कर दूसरा कोई कर्तव्य नहीं है। सम्पूर्ण धर्मों का अनुसरण करके यही सबका सार बताया गया है।

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