बुद्ध जयंती: भारत में ऐसे जली बौद्धधर्म की अमर ज्योति

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 30 Apr, 2018 09:34 AM

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पवित्र भारत देश में आदर्श जीवन यापन करने वाली नारियां एक से एक बढ़कर हुई हैं परंतु संघमित्रा का नाम सम्राट अशोक की कन्या के अनुरूप ही था। सम्राट को इतिहासकारों ने महान पदवी से विभूषित किया है परंतु देवी संघमित्रा की महत्ता उससे कहीं बड़ी थी।

पवित्र भारत देश में आदर्श जीवन यापन करने वाली नारियां एक से एक बढ़कर हुई हैं परंतु संघमित्रा का नाम सम्राट अशोक की कन्या के अनुरूप ही था। सम्राट को इतिहासकारों ने महान पदवी से विभूषित किया है परंतु देवी संघमित्रा की महत्ता उससे कहीं बड़ी थी। सिंहल का इतिहास इसका साक्षी है। अपने महाराजाधिराज अशोक महान की कन्या देवी संघमित्रा के पवित्र और उन्नत जीवन का स्मरण करके आज भी हमारा मस्तक श्रद्धा से झुक जाता है। 


मौर्य सम्राट अशोक के चरित्र में पहले बहुत क्रूरता थी। वह स्वार्थी और धर्महीन जीवन व्यतीत करता था। अपनी बढ़ी हुई क्रूरता के कारण वह चंडाशोक अर्थात् यमदूत के नाम से प्रसिद्ध हो रहा था। राज्याधिरोहण के पश्चात उसने कलिंग देश पर चढ़ाई की। इस युद्ध में वह विजयी तो हुआ, परंतु युद्ध में हुए अपार नरसंहार से उसका क्रूर हृदय भी पिघल गया और उसके हृदय में करुणा का बीज वपन हुआ। 


वैराग्य उत्पन्न होने से उसमें पर-राज्य जीतने की इच्छा नष्ट हो गई। ऐसे समय में एक शक्तिशाली भिक्षुक वहां आया। अशोक के जीवन पर उसने अधिकार कर लिया। उसके मन में आध्यात्मिक शक्ति की गूढ़ क्रिया काम करने लगी। उसने बौद्धधर्म में दीक्षा ली, भगवान बुद्ध के महान आदर्शों को उसने स्वीकार किया और उसका हृदय विश्व-प्रेम से परिपूर्ण हो गया।


अशोक ने धर्म के प्रचार में अपना सारा जीवन लगा दिया। बौद्धधर्म राजधर्म हो गया, पशु हिंसा बंद कर दी गई। पशुओं के लिए राज्य में यत्र-तत्र पशु चिकित्सालय, रोगियों के लिए सुश्रुषा-भवन खोले गए। सड़कों पर प्रकाश का प्रबंध हुआ। दीन-दुखियों के लिए अन्न-वस्त्र बांटने का प्रबंध किया गया। प्रजा के धर्म-ज्ञान की उन्नति के लिए विभाग खोले गए। साधु-संतों के लिए मठ बने। धर्म का व्यापक प्रचार होने लगा। मंदिर-मठों की दीवारों पर, पर्वतों की शिलाओं पर, स्तूपों पर, नगर-गांवों में, सर्वत्र स्थान-स्थान पर धर्म शिक्षाएं, सम्राट की धर्माज्ञाएं अंकित की गईं और योग्य धर्मोपदेशक देश-विदेश में भगवान बुद्ध के विश्व-प्रेम का प्रचार करने के लिए भेजे गए। 


इस प्रकार के धर्मनिष्ठ सम्राट की देखरेख में राजकुमार महेंद्र और राजकुमारी संघमित्रा का लालन-पालन तथा उच्च शिक्षा-दीक्षा संपन्न हुई। ये दोनों भाई-बहन जितने तेजस्वी थे, उतने ही शील और विनय में भी बढ़े-चढ़े थे। 


साधु संग तथा विद्वान गुरुजनों के बीच रहने से इनके हृदय में धर्मभाव खूब जागृत हुआ। महेंद्र की आयु 20 वर्ष और संघमित्रा की लगभग 18 वर्ष हो गई। महाराजा ने महेंद्र को युवराज पद पर अभिषिक्त करना चाहा। इसी अवसर पर बौद्धधर्म के एक आचार्य सम्राट के पास आए और बोले, ‘‘राजन! जो धर्म-सेवा में अपने पुत्र और पुत्री को अर्पण कर दे, वही बौद्ध-धर्म का वास्तविक मित्र है।’’


आचार्य की यह बात अशोक को जंच गई। उसने स्नेहाद्र्र दृष्टि से अपने पुत्र और पुत्री की ओर देखा तथा पूछा, ‘‘तुम लोग बौद्ध-धर्म स्वीकार करने को तैयार हो?’’


महेंद्र और संघमित्रा (दोनों) का हृदय-कमल पिता के इस प्रश्न को सुनते ही खिल गया। उनके मन में सेवा-धर्म की भावना तो थी ही, सम्राट की संतान होने के कारण उनको यह आशा न थी कि उन्हें संघ की शरण लेने का सौभाग्य प्राप्त होगा। उन्होंने उत्तर दिया, ‘‘पिताजी! भिक्षु और भिक्षुणी बनकर करुणामय भगवान बुद्ध के दया-धर्म के प्रचार में जीवन लग जाए, तो इससे बढ़कर आनंद की बात और क्या हो सकती है। आपकी आज्ञा मिल जाए तो इस महान व्रत का पालन कर हम अपना मनुष्य-जन्म सफल कर लेंगे।’’


सम्राट का हृदय यह सुनकर बांसों उछलने लगा। उसने भिक्षुसंघ को सूचना दी कि भगवान तथागत के पवित्र धर्म के लिए अशोक अपने प्यारे पुत्र और पुत्री को अर्पण कर रहा है। 



यह बात बिजली की भांति पाटलिपुत्र तथा मगध राज्य के कोने-कोने में पहुंच गई। सब लोग धन्य-धन्य कहने लगे। महेंद्र और संघमित्रा बौद्धधर्म में दीक्षित होकर भिक्षु और भिक्षुणी बन गए। महेंद्र का नाम धर्मपाल और संघमित्रा का नाम आम्रपाली पड़ा। दोनों अपने-अपने संघ में रहकर धर्म-साधना करने लगे। महेंद्र को 32 वर्ष की आयु में धर्म-प्रचार के लिए सिंहल द्वीप भेजा गया। उस देश का राजा तिष्ठ आध्यात्मिक ज्योति से दीप्त महेंद्र के सुंदर स्वरूप को देखकर विस्मित हो उठा। उसने अत्यंत श्रद्धा और सत्कारपूर्वक महेंद्र को अपने यहां रखा।



सिंहल में सहस्रों स्त्री-पुरुष महेंद्र के उपदेश को सुनकर बौद्ध-धर्म ग्रहण करने लगे। थोड़े ही दिनों के बाद सिंहल की राजकुमारी अनुला ने पांच सौ सखियों के साथ भिक्षुणी-व्रत लेने का संकल्प किया। उस समय महेंद्र के मन में आया कि इन सबको भली प्रकार धर्म की शिक्षा देने तथा स्त्रियों में धर्म-प्रचार के लिए शिक्षित और धर्मशीला भिक्षुणी की अत्यंत आवश्यकता है। इसलिए उसने अपनी बहन संघमित्रा को सिंहल बुलवानें के लिए अपने पिता के पास पत्र लिखा।


राजकुमारी संघमित्रा को तो धर्म के सिवाय किसी दूसरी पार्थिव वस्तु की कामना थी ही नहीं। जब उसने सुना कि धर्म-प्रचार के लिए उसे अपने भाई महेंद्र के पास सिंहलद्वीप में जाना है तो उसके आनंद की सीमा न रही। संघमित्रा ने धर्मप्रचार के लिए सिंहलद्वीप के लिए प्रस्थान किया।

 

भारत के इतिहास में यह पहला ही अवसर था, जब एक महामहिम सम्राट की कन्या ने सुंदर शिक्षा-दीक्षा तथा धर्मानुष्ठान के द्वारा जीवन की पूर्णता को प्राप्त कर दूर देश की नारियों को अज्ञानांधकार से मुक्त करने के लिए देश से प्रयाण किया। 

 

संघमित्रा ने सिंहल पहुंच कर वहां एक भिक्षुणी संघ स्थापित किया और अपने भाई महेंद्र के साथ उसने सिंहलद्वीप के घर-घर में बौद्ध-धर्म की वह अमर ज्योति जलाई जिसके प्रकाश में आज अढ़ाई हजार वर्ष बीतने पर भी सिंहल निवासी नर-नारी अपना जीवन व्यतीत करते हैं और भगवान तथागत उनके उपदिष्ट धर्म और संघ की शरण में जयघोष करते हैं।

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