Edited By Niyati Bhandari,Updated: 09 Mar, 2020 09:37 AM
चैतन्य महाप्रभु कलियुग में संकीर्तन के प्रवर्तकाचार्य के रूप में माने जाते हैं। इन्होंने नवद्वीप की पावन धरती पर जन्म लेकर उसे पवित्र बनाया और पं. श्री जगन्नाथ मिश्र को पिता तथा परम भाग्यवती श्रीमती शची देवी को माता बनने का गौरव प्रदान किया।
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चैतन्य महाप्रभु कलियुग में संकीर्तन के प्रवर्तकाचार्य के रूप में माने जाते हैं। इन्होंने नवद्वीप की पावन धरती पर जन्म लेकर उसे पवित्र बनाया और पं. श्री जगन्नाथ मिश्र को पिता तथा परम भाग्यवती श्रीमती शची देवी को माता बनने का गौरव प्रदान किया। ये नीम के नीचे प्रादुर्भूत होने से निमाई तथा गौर अंग (वर्ण) होने से गौरांग कहलाए। ऐसा कहा जाता है कि चैतन्य महाप्रभु एक बार गया में अपने पितरों को पिंडदान करने के लिए पधारे थे। श्रीविष्णुपाद के दर्शन करने के बाद इनकी भेंट श्रीस्वामी ईश्वरपुरी जी महाराज से हो गई। लोक मर्यादा को निभाने के निमित्त इन्होंने हठपूर्वक प्रार्थना करके पुरी जी महाराज को विवश करते हुए उनसे श्रीकृष्ण मंत्र की दीक्षा ले ली। मंत्र की दीक्षा प्राप्त करते ही वह मूर्च्छित होकर धराधाम पर धड़ाम से गिर पड़े।
साथियों ने मानवीय उपचार करके इन्हें किसी प्रकार चैतन्य किया। बस फिर क्या था, पूर्व से ही हृदय में जमा हुआ प्रेम प्रवाहित होकर फूट पड़ा। उस प्रेम-प्रवाह के फूटते ही इनके अंदर से ऐसी सहज धारा बह निकली, जिसने संपूर्ण जगत को प्रेम-प्लावित कर दिया।यथार्थ तो यह है कि चैतन्य महाप्रभु का आविर्भाव वस्तुत: विशुद्ध प्रेम और विश्व-बंधुत्व का द्योतक है, क्योंकि इन्होंने राधा के रूप में श्रीकृष्ण-राधा प्रेमामृत का पान करते हुए सभी को एक प्रेमसूत्र में पिरोकर विश्व-बंधुत्व की ज्योति जलाई।
चैतन्य महाप्रभु ने बताया कि जो भी नाम हमें प्रिय हो, जो भी हमारा धर्म, संप्रदाय व आजीविका हो, उसी में रहकर हमें प्रेम से भगवन्नाम संकीर्तन करना चाहिए। इतना ही नहीं, चाहे जिस किसी भी आध्यात्मिक, दार्शनिक सिद्धांतवाद को मानने वाले क्यों न हों, वे प्रेम से नाम संकीर्तन कर सकते हैं। नाम संकीर्तन करने वालों को वेशभूषा को भी नहीं बदलना है और न ही किसी अन्य बाह्याडंबर की आवश्यकता है। शुद्ध भाव से कीर्तन करना ही परम मंगलकारक है।
चैतन्य महाप्रभु ने प्रेम-धर्म के मूलभूत आध्यात्मिक तत्वों की व्याख्या की। प्रेम-भक्ति के अंग रूप में इन्होंने स्वामी श्री रामानंद द्वारा प्रदर्शित सेवा और उपासना के पांच उत्कृष्ट तत्वों को स्वीकार किया है-
- वर्णाश्रम धर्माचार पालन द्वारा भगवद्-भक्ति प्राप्त होती है।
- भगवान के लिए सभी स्वार्थों का त्याग करना आवश्यक है।
- भगवत्प्रेम द्वारा सर्वधर्म त्याग होता है।
- ज्ञानात्मिका भक्ति की साधना करनी पड़ती है।
- स्वाभाविक एवं अखंड रूप में मन को श्रीकृष्ण की भक्ति में लगाना जीव मात्र का लक्ष्य है।
चैतन्य महाप्रभु ने अपने को संसारी जीव मानते हुए श्रीकृष्ण से शुद्ध भक्ति की प्रार्थना की। इन्होंने सुप्तप्राय मानव जाति को प्रेम से भक्तिपथ दिखलाकर पुन: जागृति प्रदान की। श्रीगौरांग चैतन्य महाप्रभु कीर्तन करते हुए वृंदावन जा रहे हैं। वह अरण्यासी सिंह, हस्ती, मृग और पक्षियों तक को श्रीकृष्ण-प्रेम में उन्मत्त करते हुए एवं उनके मुख से श्रीहरि के सुमधुर नामों का उच्चारण कराते हुए उन्हें भी अपने साथ ही नृत्य कराते जा रहे हैं। इनका दास्य प्रेम-भक्ति के महत्व का वर्णन अद्भुत है।
चैतन्य महाप्रभु के अनुसार दास्य-भक्ति के समान और कोई सुख नहीं, इसकी तुलना में अन्य सुख व्यर्थ हैं। करोड़ों ब्रह्म-सुख दास्य भाव के सुख के सामने तुच्छ हैं।
चैतन्य महाप्रभु ने सारे संसार के लिए प्रेम-शब्दाभिधेय ज्योति जलाई। संसार में प्रेय और श्रेय नामक दो मार्ग हैं। इनमें प्रेय भौतिक और श्रेय आध्यात्मिक पथ का अनुसरण करता है। प्रेय का अर्थ है- पुत्र, धन, यश आदि इस लोक के और स्वर्गलोक के समस्त प्राकृत सुख-भोगों की सामग्रियों की प्राप्ति का मार्ग तथा श्रेय का अर्थ है- इन भौतिक सुख-भोगों की सामग्रियों से उदासीन रहकर नित्यानंद स्वरूप परब्रह्म पुरुषोत्तम की प्रीति के लिए उद्योग करना। इसलिए चैतन्य महाप्रभु ने संकीर्तन के द्वारा प्रेय एवं श्रेय दोनों मार्गों को एक साथ समन्वित करके चलने को कहा है।
वास्तव में जब तक जगत में भगवन्नाम संकीर्तन रहेगा, तब तक चैतन्य महाप्रभु का प्रेम-शरीर ज्यों-का-त्यों बना रहेगा और भक्तगण आनंदित होते रहेंगे।