चाणक्य से जानिए क्या स्नेह है व्यक्ति से जुड़ी हर प्रॉब्लम की जड़?

Edited By Jyoti,Updated: 28 Jan, 2020 03:14 PM

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स्नेह, कहा जाता है जितना स्नेह हम लोगों से बांटते हैं उतना ही हमें सामने वाले से प्राप्त होता है। मगर क्या आप जानते हैं कभी-कभी यही स्नेह हमारे हर दुख की वजह बनता है। जी हां आप शायद सोचेंगे भला ऐसा कैसे।

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स्नेह, कहा जाता है जितना स्नेह हम लोगों से बांटते हैं उतना ही हमें सामने वाले से प्राप्त होता है। मगर क्या आप जानते हैं कभी-कभी यही स्नेह हमारे हर दुख की वजह बनता है। जी हां आप शायद सोचेंगे भला ऐसा कैसे। चाणक्य नीति में इसी संदर्भ में एक श्लोक वर्णित है जिसके अनुसार अगर कोई व्यक्ति किसी व्यक्ति के प्रति अधिक स्नेह दिखाता है तो उसी से उसे दुख भी मिलता है। इसलिए हिंदू धर्म के बहुत से शास्त्रों में ऐसा उल्लेख किया गया है कि इंसान को किसी भी वस्तु या अपने परिवार के अलावा किसी अन्य व्यक्ति से स्नेह पैदा नहीं चाहिए। तो जानते हैं राजनीति और अर्थशास्त्र के ज्ञाता आचार्य चाणक्य की इस नीति के बारे में जिसमें ये श्लोक दिया गया है। साथ ही जानेंगे इनके द्वारा बताए गए कुछ अन्य श्लोक तथा उनके अर्थ। 
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बता दें चाणक्य ने अपने नीति शास्त्र में बड़े ही सरल तरीके से मानव समाज के कल्याण के लिए नीतियां बताईं हैं। इनकी इन्हीं नीतियों से चंद्रगुप्त जैसा सामान्य से बालक भी अखंड भारत का सम्राट बन गया था। कहा जाता है राजाओं महाराजाओं के दौर में बनी इनकी ये नीतियां आज के समय में भी कारगर साबित होती हैं।

आचारः कुलमाख्याति देशमाख्याति भाषणम्। 
सम्भ्रमः स्नेहमाख्याति वपुराख्याति भोजनम् ॥

अर्थ- चाणक्य कहते हैं कि आचरण से व्यक्ति के कुल का परिचय मिलता है। बोली से देश का पता लगता है। आदर-सत्कार से प्रेम का तथा शरीर को देखकर व्यक्ति के भोजन का पता चलता है। 

यस्य स्नेहो भयं तस्य स्नेहो दुःखस्य भाजनम्। 
स्नेहमूलानि दुःखानि तानि त्यक्तवा वसेत्सुखम्॥

अर्थ- चाणक्य के अनुसार अगर किसी व्यक्ति को किसी के प्रति अधिक प्रेम होता है तो उसे उसी से भय भी होता है क्योंकि प्रीति दुःखों का आधार है। और स्नेह ही सारे दुःखों का मूल है। अतः स्नेह तथा बंधनों को तोड़कर सुखपूर्वक जीवन व्यतीत करना चाहिए।

माता च कमला देवी पिता देवो जनार्दनः।
बान्धवा विष्णुभक्ताश्च स्वदेशो भुवनत्रयम्॥

अर्थ- जिस व्यक्ति के मां लक्ष्मी के समान, पिता विष्णु के समान और भाई-बहन विष्णु के भक्त समान होते हैं, उसके लिए उसका घर ही तीनों लोकों के समान होता है।
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वाचा च मनसः शौचं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।
सर्वभूतदया शौचमेतचछौचं परमार्थिनाम्॥

अर्थ: चाणक्य के अनुसार मन, वाणी को पवित्र रखना, इंद्रियों का निग्रह करना, सभी प्राणियों के प्रति दया भावना रखनी तथा दूसरों का उपकार करना ही सबसे बड़ी शुद्धता है।

गुणो भूषयते रूपं शीलं भूषयते कुलम्।
सिद्धिर्भूषयते विद्यां भोगो भूषयते धनम्॥

अर्थ: चाणक्य कहते हैं व्यक्ति के गुण उसके रूप की शोभा बढ़ाते हैं, उसका शील स्वभाव कुल की शोभा बढ़ाता है, उसकी सिद्धि उसके द्वारा की गई विद्या की शोभा बढ़ाती है तथा भोग करना उसके धन की शोभा बढ़ाता है।
        
दरिद्रता धीरयता विराजते कुवस्त्रता स्वच्छतया विराजते।
कदन्नता चोष्णतया विराजते कुरूपता शीलतया विराजते॥

अर्थ: उपरोक्त श्लोक के द्वारा आचार्य चाणक्य मनुष्य को ये बताना चाहते हैं कि जिस व्यक्ति में धीरज होता है उसे अपनी निर्धनता भी सुंदर लगती है, साफ़ रहने पर गरीब व्यक्ति को अपने मामूली वस्त्र भी अच्छे लगते हैं। गर्म किए जाने पर बासी भोजन भी सुंदर व स्वादिष्ट जान परता है। और अगर मनुष्य का स्वभाव अच्छा हो तो कुरूपता भी सुंदर लगती है ।

दातृत्वं प्रियवक्तृत्वं धीरत्वमुचितज्ञता।
अभ्यासेन न लभ्यन्ते चत्वारः सहजा गुणाः॥

अर्थ: उपरोक्त श्लोक में 4 ऐसे गुण हैं बताए गए हैं जो अभ्यास से नहीं आते बल्कि ये उसके सहज गुण माने जाते हैं-  दान देने की आदत, प्रिय बोलना, धीरज तथा उचित ज्ञान का मालिक होना।
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