छप्पर फाड़ सफलता की गारंटी हैं चाणक्यर की ये नीतियां

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 19 Aug, 2019 01:49 PM

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आचार्य चाणक्य कुशल कूटनीतिज्ञ, अद्वितीय युगदृष्टा माने जाते हैं। उनकी कालजयी नीतियां आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उनके समय में थीं।

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आचार्य चाणक्य कुशल कूटनीतिज्ञ, अद्वितीय युगदृष्टा माने जाते हैं। उनकी कालजयी नीतियां आज भी उतनी ही प्रासंगिक हैं जितनी उनके समय में थीं। उनकी नीतियां जहां राजवंश के लिए कुशल प्रशासन संचालन में मार्गदर्शन बनीं,  वहीं आज के युग में भी दिशाबोध देने में सक्षम हैं। नीति का सुचारू रूप से पालन किए बिना न जीवन चलता है न समाज और न ही राष्ट्र। वास्तव में नीतियां मानव की जटिल समस्याओं से उबरने के लिए दिव्य मार्गदर्शन कर एक आदर्श समाज की स्थापना में सहयोगी होती हैं।

भारतीय इतिहास में आचार्य चाणक्य का नाम बड़े सम्मान से लिया जाता है। वह सम्राट चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु एवं प्रधानमंत्री थे। उनकी नीतियां ‘चाणक्य नीति’ के नाम से संपूर्ण विश्व में विख्यात हैं। भारतीय अर्थशास्त्र के प्रथम रचयिता होने के कारण उन्हें कौटिल्य के नाम से भी जाना जाता है। वर्तमान राजनीति में कुशल कूटनीतिज्ञ तथा राजनीतिज्ञ को सम्मान से कौटिल्य के नाम से विभूषित किया जाता है। इसका मूल कारण है कि अपनी दूरदर्शिता तथा नीति की प्रवीणता के कारण उनकी नीतियां वर्तमान मानव जीवन ही नहीं, राजनीति को भी मार्गदर्शन देने के कारण अत्यंत प्रासंगिक हैं।

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वर्तमान चर्चित भ्रष्टाचार युक्त, राजनीति में राजनीतिज्ञों तथा प्रशासनिक अधिकारी वर्ग के लिए चाणक्य नीति को एक संपूर्ण मार्गदर्शक ग्रंथ कहा जा सकता है। वर्तमान राजनीति के लिए आचार्य चाणक्य का जीवन आदर्श अनुकरणीय है।

सम्राट मौर्य के शासनकाल में जब वह प्रधानमंत्री थे तब वह अपने आवास में दो-दो दीपक जलाया करते थे। जब वह राजकीय कार्य करते तो राजकीय दीपक जलाया करते और जब निजी कार्य करते तो अपने निजी दीपक का उपयोग करते।

आचार्य चाणक्य ने अपनी नीति को निम्नलिखित दृष्टांत में स्पष्ट किया है :
यथार्धुन सहस्त्रेयु वत्सो, गच्छति मातरम्। तथा यच्च कृतं कर्म कर्त्तारमुनुगच्छति।।  

अर्थात कर्म सिद्धांत को गाय और बछड़े के उदाहरण से समझा जा सकता है। जिस प्रकार हजारों गायों के बीच बछड़ा सीधे ही अपनी मां के पास आया करता है, ठीक उसी प्रकार हमें अपने कर्म भुगतने पड़ते हैं, जो हमारे पीछे लगे हैं।

आचार्य चाणक्य ने वर्तमान युग में सामाजिक सरोकारों को व्यवस्थित कर सामाजिकों का मार्गदर्शन भी किया है। देखिए:
लालये पंचवर्षाणि, दश वर्षाणि ताडय़ेत। प्राप्ते तु मोडशे कार्य : पुंत्र किन्न वदा चरेत।।

अर्थात पांच वर्ष की अवस्था तक संतान का लालन-पालन करना चाहिए। दस वर्ष तक उसे सही मार्गदर्शन हेतु प्रताड़ित भी किया जा सकता है। इसके बाद सोलह वर्ष की अवस्था में उसके साथ मित्रवत व्यवहार किया जाना चाहिए। इस पर आधारित आज भी भारतीय समाज में यह नीति प्रसिद्ध है कि यदि बाप का जूता बेटे के पांव में आ जाए तो उसे अपना मित्र मानना चाहिए। इससे यह स्पष्ट होता है कि पुत्र के साथ मित्रवत व्यवहार पारिवारिक आत्मीयता की वृद्धि करता है।

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आजकल बुरी सोहबत तथा फिल्मी आदर्शों के चक्कर में संतान पुराने आदर्शों की उपेक्षा कर रही है, जिससे पिता और पुत्र के संबंधों में कटुता आती है तथा पारिवारिक विघटन की कहानी शुरू हो जाती है। इस संदर्भ में आचार्य चाणक्य का कथन देखने योग्य है-
एकेनापि सुपुत्रमेव, विद्यायुक्ते च साधुना। आह्लादित कुलं सर्व, यथा चंद्रेण शर्वरी।।

सुपुत्र उस चंद्रमा के समान है जो अपने ही दम पर रात की शोभा बढ़ाया करता है, जबकि कुपुत्र उस सूखे वृक्ष के समान है जो स्वयं को जलाकर सारे वन को राख कर देता है। सांसारिक जीवन की सार्थकता के लिए आचार्य चाणक्य निम्नलिखित लोकनीति स्पष्ट करते हैं :
मित्रं प्रवासेषु, भार्या मित्रं गृर्हषु ना। व्याधितस्यौष्य मित्र, धर्मामित्र मृतस्य च।।

अर्थात प्रवासकाल में विद्या मित्र हुआ करती है। गृहस्थ जीवन में पत्नी ही वास्तविक मित्र हुआ करती है। रोगी के लिए औषधि मित्र है जबकि मृत्यु के बाद धर्म ही व्यक्ति का परम मित्र होता है।

वर्तमान में बीस प्रश्नों (ट्वन्टी क्वेशचंस) के भरोसे परीक्षा की बैसाखी से तरने वाले विद्यार्थियों के प्रति आचार्य चाणक्य का कहना है कि विद्यार्जन एक साधना है, जिसका कोई शार्टकट नहीं हो सकता। अत:
सुखार्थी चेवत्य जे द्विद्यां, विद्यार्थी चेत ल्यजेन्सुखम। सुखार्थिन: कुतो विद्या, कुतो विद्यार्थिन सुखम्।।

अर्थात सुख की कामना करने वाले को विद्या त्याग देनी चाहिए। यदि विद्यार्जन करनी है तो सुखों की ओर से मुंह मोड़ लेना चाहिए। सुख चाहने वालों को विद्या नहीं मिलती। विद्या चाहने वालों को सुख नहीं मिलता।

प्रकृति की गोद शाश्वत जीवन का संदेश देती है। मानव सदा ही प्रकृति का पुत्र रहा है। यदि वह प्राकृतिक जीवन व्यतीत करता है तो वह अधिक सुखी रहता है। ज्ञानार्जन के संदर्भ में आचार्य चाणक्य कहते हैं :
सिहच्देंक बकदिल, शिक्षेच्वत्वारि कुक्कुटान। वायसात्पंच शिक्षेच्च, षट सुनस्मीहा गर्दभात।

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प्रकृति की गोद से स्वतंत्र विचरण करने वाले विचित्र प्राणियों से सीख लेनी चाहिए। शेर अपना कार्य पूरी शक्ति से सम्पन्न करता है। बगुले में मन की एकाग्रता रहती है। मुर्गे से जागना, भागना और स्वयं झपट कर खाना सीखा जा सकता है। कौआ छिपकर समागम करता है। वह किसी पर विश्वास नहीं करता। कुत्ता गहरी नींद में भी सतर्क रहता है। उसकी वीरता और स्वामी भक्ति प्रसिद्ध है। गधा संतुष्ट जीव है।

इस प्रकार प्रकृति के माध्यम से आचार्य चाणक्य ने मानव कल्याण के लिए युगांतकारी नीतियों का सृजन किया है जो आज भी प्रासंगिक हैं।
 

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