चित्रगुप्त पूजा विशेष: चित्रगुप्त ब्रम्हा के चित्त में गुप्त रूप से वास करते थे चित्रगुप्त

Edited By Jyoti,Updated: 15 Nov, 2020 06:50 PM

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बस्ती: चित्रगुप्त वशंज 16 नवम्बर को कलम (लेखनी) की पूजा करेंगे । कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि का प्रारंभ 16 नवंबर को सुबह 07:06 बजे से हो रहा है, जो 17 नवंबर को तड़के 03:56 बजे तक है।

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चित्रगुप्त वशंज 16 नवम्बर को कलम (लेखनी) की पूजा करेंगे । कार्तिक शुक्ल द्वितीया तिथि का प्रारंभ 16 नवंबर को सुबह 07:06 बजे से हो रहा है, जो 17 नवंबर को तड़के 03:56 बजे तक है। ऐसे में आप चित्रगुप्त पूजा 16 नवंबर को करें। इस दिन सर्वार्थ सिद्धि योग सुबह 06:45 से दोपहर 02:37 तक है। विजय मुहूर्त दोपहर 01:53 बजे से दोपहर 02:36 तक है। अभिजित मुहूर्त दिन में 11:44 बजे से दोपहर 12:27 बजे तक है।बिना कलम की पूजा किये हुए चित्र गुप्त वशंज पानी नही पीते है। प्रलय के अनन्तर परमपिता ब्रह्मा ने सृष्टि रचना का कार्य प्रारम्भ किया, और मनुष्य सहित अन्य जीव जन्तुओं को उदय हुआ। कर्मफल की व्यवस्था संभाली धर्मराज ने, शुभकर्मों के फलस्वरूप पुण्य और अशुभ कर्मों के परिणाम में पाप का भागी होने की व्यवस्था दी गई। धर्मराज यह लेखा जोखा रखने में पूर्ण सक्षम थे। अत: सृष्टि व्यवस्था सुचारू चलती रही। धीरे -धीरे जनसंख्या बढ़ती, वंशावलियों का विस्तार हुआ, मानव शरीरों की संख्या गणना कठिन प्रतीत हुई, पाप-पुण्य का लेखा- जोखा रखना दुश्कर हुआ।
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धर्मराज आकुल व्याकुल होकर पहुंचे परमपिता ब्रह्मा के चरणों में और कहा ‘‘मुझे सहायक चाहिए, कार्याध्यक्ष चाहिए।'' पितामह ध्यानमगन हुए, तप प्रारम्भ हुआ, एक हजार वर्ष बीत गए, शरीर में स्पन्दन हुआ, शुद्ध चैतन्य ब्रह्मा शरीर डोलायमान हुआ और प्रगट हुआ ब्रह्मा शरीर से तेजोदीप्त, दिव्य, स्थूल रूप, वर्ण तीसी के फूल के समान श्यामल, कण्ठ शंख के समान सुडौल, कण्ठ रेखा कबूतर के गले की रेखा के समान चिकनी, नेत्र कमल की पंखुरी के समान आकर्षक, हाथ आजानु दीर्घ, शरीर-सौष्ठव पूर्ण पीताम्बर-धारी, विद्युत सम आभावान्, दाहिने हाथ में लेखनी, बांए हाथ में दवात वे नवीन पुरूषाकृति पितामह के चरणों में नतमस्तक हुए। पितामह ने अपने प्रतिरूप सद्दश पुरूष के हाथ उठाकर आशीर्वाद दिया। पुरूष ने पितामह से विनम्र भाव से कहा ‘‘पिता! कृपया मेरा नाम, वर्ण, जाति और जीविका का निर्धारण कीजिए। पितामह ने उत्तर दिया ‘‘तुम मेरे चित्त में गुप्त रूप से वास करते थे अत: तुम्हारा नाम चित्रगुप्त हुआ। तुम मेरी काया में स्थित थे अथवा जो चैतन्य समभाव से सबकी काया से साक्षी है वही तुम में भी अन्त: है अत: वर्ण कायस्थ हुआ। तुम धर्म-अधर्म के विचार का लेखा -जोखा रख कर मानव जाति के अस्तित्व की रक्षा करोगे अत: जाति क्षत्रिय हुई। तुम विद्याध्ययन के माध्यम से ख्याति को प्राप्त होगे अत: जीविका पठन और लेखन हुई तुम्हारा वास स्थान पृथ्वी लोक में अवन्तिपुरी हुआ।' 
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श्री भगवान चित्रगुप्त पितामह का आदेश पाकर धरती पर आये ‘अवन्तिपुरी में श्री महादेव के मन्दिर को अपना स्थायी आवास बनाकर वहां अध्ययन कर्म से दत्तचित्त हुए। उनकी श्रद्धा भक्ति से महादेव शंकर प्रसन्न हुए। देवाधिदेव शंकर एक बार किसी कार्यवश सूर्यलोक गयें सुशमी श्रृषि की पुत्री शुभावती उस समय सूर्यलोक में रहती थी। अप्रतिम सौन्दर्य की स्वामिनी शुभावती का परिचय पूछने पर सूर्यदेव ने बताया ‘‘सुशमी श्रृषि ने एक पुत्रेष्टि यज्ञ किया परन्तु यज्ञफल रूप में पुत्री प्राप्त हुई। यज्ञ को अपूर्ण मानवे पुत्री को पालनार्थ मेरे पास छोड़ पुन: यज्ञ करने के निमित्त अवन्ति पुरी चले गये है। उन्हीं क्षणों में आकाशवाणी हुई यह कन्या सौभाग्यशालिनी है। इसका विवाह अजर अमर पुरूष से होगा। महादेव आकाशवाणी सुन हर्षित स्वर में बोले-‘‘सूर्यदेव! पुत्री शुभावती को अवन्तिपुरी ले चलो, वहां इनके पिता की अनुमति से इनका विवाह चिरयुवा श्री चित्रगुप्त से सम्पन्न हो।'' सूर्य भगवान सपरिवार अवन्तिपुरी आये, चित्रगुप्त और शुभावती परिणय सूत्र में बंधे। श्री चित्रगुप्त की विद्वता और विनम्रता से प्रभावित होकर सूर्य के बन्धुज श्राद्ध देव मनु ने भी अपनी नन्दिनी नाम की सुशीला कन्या का विवाह श्री चित्रगुप्त के साथ किया। परमपिता ब्रह्मा अपने मानसपुत्र के विवाह में सम्मिलित हुए और आशीर्वाद से तृप्त किया ‘‘चिरंजीवी हो, ज्ञानी हो, देवताओं में प्रतिष्ठित हो, परोपकार के लिए समर्पित हो। तुम्हारी पूजा करने वाला उत्तम गति का अधिकारी हो।
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तुम्हारा वंश सृष्टि से प्रल तक निर्बाध बढ़े। तुम्हारा वंश तुम्हारे समान शिक्षा में रूचि रखने वाला, परोपकारी और पररक्षक हो। तुम अपने वंश सहित छात्र धर्म का पालन करो। धर्मराज की सभा तुम्हारा कार्यस्थल बने। तुम न्यायपूर्वक सभी प्राणियों के धर्म-अधर्म का विचार करो। श्री चित्रगुप्त ने आशीर्वाद सहज स्वीकार किया।'' श्री चित्रगुप्त अपनी दोनों पत्नियों शुभावती व नन्दिनी के साथ सुखपूर्वक रहने लगे। शुभावती से उन्हें आठ पुत्र प्राप्त हुए चारू सुचारू,चित्रचारू, मतिमान, हेमबाण, चित्र, अरूण तथा जितेन्द्रिय। द्वितीय पत्नी नन्दिनी से चार पुत्ररत्न मिले- भानु, स्वभानु, विश्वभानु और बृजभानु। सभी 12 शिशुओं की किलकारियों से आंगन गूंज उठा। माता-पिता धन्य हुए। 

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