15 वर्ष की आयु में दादी प्रकाशमणी को हुए थे श्री कृष्ण के दर्शन

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 03 Sep, 2020 07:17 AM

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प्रभावशाली और शक्तिशाली व्यक्तित्व की धनी प्रकाशपुंज दादी प्रकाशमणी प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्यालय की 1969 से 2007 तक मुख्य प्रशसिका रहीं और इसी समय में इस विश्वविद्यालय के ह

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Dadi Prakashmani: प्रभावशाली और शक्तिशाली व्यक्तित्व की धनी प्रकाशपुंज दादी प्रकाशमणी प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज ईश्वरीय विश्वविद्यालय की 1969 से 2007 तक मुख्य प्रशसिका रहीं और इसी समय में इस विश्वविद्यालय के हजारों सैंटर्स खुले। सादगी से सम्पन्न दादी का लौकिक नाम रमा था। जन्म उत्तरी भारतीय प्रांत हैदराबाद, सिंध (पाकिस्तान) में 1 सितम्बर 1922 को हुआ।  उनके पिता भगवान विष्णु के एक महान उपासक थे, रमा का भी श्री कृष्ण के प्रति प्रेम और भक्ति भाव रहता था। वह केवल 15 वर्ष की आयु में पहली बार ओम मंडली के संपर्क में आईं, जिसे 1936 में स्थापित किया गया था। रमा को ओम मंडली में पहली बार आने से पहले ही घर बैठे श्री कृष्ण का साक्षात्कार हुआ।

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दीवाली के दौरान छुट्टियां थीं, पिता ने रमा से अपने घर के पास सत्संग में जाने के लिए कहा। असल में, इस आध्यात्मिक सभा (सत्संग) का गठन दादा लेखराज (जिन्हें अब ब्रह्मा बाबा के नाम से जाना जाता है) द्वारा किया गया था। इसे ओम मंडली के नाम से जाना जाता था।

रमा पहले दिन ही जब दादा लेखराज से मिलीं तो उन्हें एक अलग ही दिव्य अनुभव हुआ। उन्हीं दिनों में बाबा ने रमा को प्रकाशमणी नाम दिया। तो ऐसे हुआ था दादी प्रकाशमणी का अलौकिक जन्म।

ओम मंडली कराची (पाकिस्तान) में 12 साल की तपस्या के बाद मार्च 1950 में (भारत के स्वतंत्र होने के बाद) माऊंट आबू में आई, जो अभी भी प्रजापिता ब्रह्माकुमारीज का मुख्य सैंटर है। 1952 से मधुबन-माऊंट आबू से पहली बार ईश्वरीय सेवा शुरू की गई, ब्रह्माकुमारियां जगह-जगह जाकर ज्ञान सुनातीं और धारणा करवाती रहीं। दादी प्रकाशमणी भी इसी सेवा में जाती थीं। ज्यादातर दादी जी मुंबई में ही रहती थीं।

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प्रजापिता ब्रह्मा बाबा के अव्यक्त होने के बाद दीदी मनमोहिनी के साथ साथ दादी प्रकाशमणी मधुबन से ही संस्था की संभाल करने लगीं। अव्यक्त होने से पहले ही ब्रह्मा बाबा ने दादी को संस्था की समस्त जिम्मेदारी दे दी थी। दादी के समर्थ नेतृत्व में संस्था ने वृद्धि की और कई देशों में सहज रीति से राजयोग सेवा-केंद्र खुले।

2007 तक संस्था का बहुत विस्तार हो गया। इन्हीं दिनों में दादी जी का शारीरिक स्वास्थ्य प्रभावित हुआ। जुलाई 2007 के अंत में ही उनको हॉस्पिटल में रखा गया और 25 अगस्त, 2007 को दादी ने शरीर छोड़ा। शान्तिवन में दादी की यादगार में ‘प्रकाश स्तम्भ’ बनाया गया है, जिस पर दादी की दी हुई शिक्षाएं लिखी गई हैं। वह स्व-कल्याण के साथ-साथ विश्व कल्याण की बात अवश्य करती थीं। उनकी अलौकिक दृष्टि मानवमात्र के जीवन को सुखी व आध्यात्मिक बनाने वाली थी।

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