कैलाश नहीं बल्कि महादेव इस मंदिर से करते हैं पृथ्वी का संचालन

Edited By Jyoti,Updated: 24 Jul, 2019 09:34 AM

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यूं तो भारत देश में ऐसे कई पर्वत पहाड़ आदि हैं जिससे हिंदू धर्म के देवी-देवताओं का गहरा सबंध माना जाता है। मगर कैलाश पर्वत को सबसे धार्मिक व पौराणिक पर्वत माना जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसका संबंध हिंदू धर्म में देवों के देव कहे जाने वाले महादेव से...

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यूं तो भारत देश में ऐसे कई पर्वत पहाड़ आदि हैं जिससे हिंदू धर्म के देवी-देवताओं का गहरा सबंध माना जाता है। मगर कैलाश पर्वत को सबसे धार्मिक व पौराणिक पर्वत माना जाता है। ऐसा इसलिए क्योंकि इसका संबंध हिंदू धर्म में देवों के देव कहे जाने वाले महादेव से है। शास्त्रों के अनुसार यह शिव शंकर का पक्का बसेरा है, जहां वो हमेशा ध्यान में मग्न रहते हैं। शिव पुराण में बताया गया है कि भोलेनाथ को यह जगह अति प्रिय है, क्योंकि यहां एकदम शांति है जिस कारण उनका ध्यान भंग नहीं होता और वो अपने एकाग्र मन से अपने आराध्य श्री हरि का नाम जपते हैं। ज्योतिष मान्यताओं के अनुसार देवशयनी एकादशी के उपरांत भगवान विष्णु के चार मास की निद्रा में जाने के बाद सृष्टि का सारा भार भगवान शंकर पर आता है। चातुर्मास की पूरी अविध शिव शंभू सृष्टि का संचालन करते हैं। आप में से बहुत से लोग ऐसे होंगे जो शायद इन बातों से रूबरू हों लेकिन किसी को यह नहीं पता होगा कि भोलेनाथ सावन में पृथ्वी पर आकर एक बहुत ही प्राचीन मंदिर में विराजते हैं, जहां से वो संपूर्ण ब्रह्मांड की सत्ता चलाते हैं। तो आइए जानते हैं कौन सा है ये मंदिर-
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कुछ पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, सावन के पावन माह में त्रिशूलधारी शिव शंकर हरिद्वार के कनखल स्थित दक्ष मंदिर में विराजते हैं। किंवदंतियों के अनुसार यह वहीं स्थल है जहां महादेव और सती का विवाह हुआ था।  इस मंदिर को डमरू वाले शंकर का ससुराल भी माना जाता है।

बता दें इस मंदिर में भगवान शिव की एक बहुत ही भव्य व सुंदर मूर्ति विराजित है, जिसमें उन्होंने माता सती को उन्होंने अपनी भुजाओं में उठा रखा है। यह प्रतिमा मां सती के हवन कुंड में समाधि लेने के बाद की घटना को दर्शाती है। प्रचलित मान्यताओं के अनुसार सावन में भगवान शिव अपनी ससुराल से माता पार्वती के साथ ब्रह्मांड की सत्ता चलाते हैं।
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सावन में यहां विराजते हैं भोले भंडारी
पौराणिक कथाओं के मुताबिक  कनखल का दक्ष प्रजापति मंदिर वही स्थान है, जहां प्राचीन समय में राजा दक्ष ने भव्य यज्ञ का आयोजन किया था परंतु उसमें अपने जमाई भोलेनाथ को नहीं बुलाया था। जिससे नाराज़ होकर माता सती ने हवन कुंड में कूदकर अपने प्राण त्याग दिए थे। इसके बाद भगवान शंकर के अवतार वीरभद्र (भगवान शिव के गौत्र रूप) ने अपने ससुर दक्ष प्रजापति का सिर धड़ से अलग कर दिया था। बाद में सभी देवताओं के आग्रह करने पर उन्होंने राजा दक्ष को बकरे का सिर लगाकर पुनर्जीवन दिया था और राजा दक्ष की विनती पर शिव जी ने उन्हें वचन दिया था कि वो पूरे साल में एक बार सावन के महीने में कनखल में अवश्य विराजा करेंगे। कहा जाता है तभी से सावन में शिव कनखल में विराजमान होकर ही पूरी सृष्टि का संचालन करते हैं। इसी के चलते यहां पर सावन में भगवान शिव के के श्रदालुओं की भीड़ उमड़ती है।  

मंदिर में हैं श्री हरि के पदचिन्ह
मंदिर में श्री हरि के पदचिन्ह के निशान हैं, जिन्हें देखने के लिए मंदिर में हमेशा श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। इसके अलावा मंदिर में एक छोटा-सा गड्ढा है, जिसके बारे में कहा जाता है कि इस गड्ढे में देवी सती ने अपने जीवन का बलिदान दिया था, जो उस समय हवन कुंड था। बताते चलें दक्ष महादेव मंदिर के पास ही गंगा के किनारे पर दक्षा नामक घाट है।

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