Edited By Niyati Bhandari,Updated: 08 Aug, 2022 07:41 AM
दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में कैलाश मानसरोवर पर मिलन मौदगिल की सजी प्रदर्शनी श्रद्धालुओं और खोजियों का ध्यान कैलाश-मानसरोवर क्षेत्र की महिमा की ओर खींच रही है। यह पावन भूमि एक तरफ सनातनी
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Mount Kailash Manasarovar Yatra: दिल्ली के इंडिया हैबिटेट सेंटर में कैलाश मानसरोवर पर मिलन मौदगिल की सजी प्रदर्शनी श्रद्धालुओं और खोजियों का ध्यान कैलाश-मानसरोवर क्षेत्र की महिमा की ओर खींच रही है। यह पावन भूमि एक तरफ सनातनी आस्थानुसार शिव का निवास स्थान है तो जैनियों के लिए प्रथम तीर्थंकर ऋषभ देव की समाधि स्थल, बौद्ध के लिए महामाया से जुड़ी भूमि है, तो स्थानीय बोनपो धर्म के आस्था का केंद्र। शास्त्रों में कैलाश पर्वत को पृथ्वी की मेरुदंड यानि धुरी मानी गई है। कुछ ऐसा ही कोतूहलों ने खोजकर्ता मिलन मौदगिल को कैलाश की यात्रा (2002-2007) के लिए प्रेरित किया, और वह स्वीडिश अन्वेषक स्वेन हेडिन (1906) और स्वामी प्रणवानंद (1916-1950) की कैलाश यात्रा के पद चिन्हों पर चल पड़े।
अपनी इन यात्राओं को मिलन ने छायाबद्ध किया है इस प्रदर्शनी में, जिसमें कई छायाचित्र वाकई मंत्रमुग्ध करते हैं। कैलाश शोधार्थी बतौर इन मनमोहक तस्वीरों में जिस पनारोमिक तस्वीर ने मेरा सबसे ज्यादा ध्यान खींचा, वह है मानसरोवर-राक्षसताल की विशाल संयुक्त तस्वीर। अपने 55 फोटो के माध्यम से, जिसमें सबसे नया 14 वर्ष पुराना और सबसे पुराना काम 20 वर्ष पूर्व का है। मिलन मौदगिल ने सतलुज, ब्रह्मपुत्र और करनाली नदियों के उद्गम स्रोतों को बखूबी खंगाला है।
इस प्रक्रिया में उन्होंने स्वेन हेडिन और स्वामी प्रणवानंद की इन नदियों के उद्गम के स्रोतों के बौद्धिक तुलना का प्रयास किया है। लगता है कि मिलन आनन-फानन में स्वेन हिडेन के दावों को सर्वोपरि घोषित करते नजर आते हैं और प्रणवानंद के खोज कमतर करते हैं जबकि है उल्टा।
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स्वामी प्रणवानंद ने इस दुर्गम क्षेत्र की यात्रा लगातार 25 से अधिक वर्षों तक हर वर्ष की, वह भी हर बार साधक की तरह 5-6 महीने लगातार वहां रह कर। उनकी अनुभवी ज्ञान को समेटे इस क्षेत्र पर तीनों पुस्तकें अद्वितीय रूप से मौलिक और दुर्लभ हैं, जिसमें एक की प्रस्तावना पंडित नेहरू ने लिखी है। इसके विपरीत स्वेन ने मात्र 1906 में इस क्षेत्र की यात्रा की है। हालांकि इसका कारण मिलन मानते हैं स्वेन हिडेन की हिटलर से नजदीकियां। उपरोक्त कारणों से अंतत: इस भव्य प्रदर्शनी में स्वामी प्रणवानंद की मौलिकता को ज्यादा जगह मिलनी चाहिए थी। प्रदर्शनी प्रस्तोता का काम तस्वीरों को प्रदर्शित करने का होता है, फैसला करने का नहीं।
(उदय सहाय (आईपीएस) ने 1998 में कैलाश यात्रा की और देश-विदेश में इस यात्रा पर इसी विषय पर खुद की भी फोटो-प्रदर्शनियां आयोजित कर चुके हैं)