Dharmik Katha: सत्य सनातन तो केवल परमात्मा है

Edited By Jyoti,Updated: 18 Jun, 2022 11:19 AM

dharmik katha truth is eternal only god

महाराजा चित्रकेतु पुत्रहीन थे। महर्षि अंगिरा का उनके यहां आना-जाना होता था। जब भी आते राजा उनसे निवेदन करते, ‘‘महर्षि मैं पुत्रहीन हूं, इतना राज्य कौन संभालेगा? कृपा करो एक पुत्र मिल जाए, एक

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महाराजा चित्रकेतु पुत्रहीन थे। महर्षि अंगिरा का उनके यहां आना-जाना होता था। जब भी आते राजा उनसे निवेदन करते, ‘‘महर्षि मैं पुत्रहीन हूं, इतना राज्य कौन संभालेगा? कृपा करो एक पुत्र मिल जाए, एक पुत्र हो जाए।’’

ऋषि बहुत देर तक टालते रहे। कहते राजन, ‘‘पुत्र वाले भी उतने ही दुखी हैं जितने पुत्रहीन।’’

किन्तु पुत्र मोह बहुत प्रबल है। बहुत आग्रह किया तो वह बोले, ‘‘ठीक है परमेश्वर कृपा करेंगे तेरे ऊपर, पुत्र पैदा होगा।’’

कुछ समय बाद पुत्र पैदा हुआ। थोड़ा ही बड़ा हुआ होगा कि राजा की दूसरी रानी ने उसे जहर देकर मरवा दिया। राजा चित्रकेतु शोक में डूब गए। बाहर नहीं निकल पा रहे थे, महर्षि को याद कर रहे थे। महर्षि बहुत देर तक इस होनी को टालते रहे लेकिन होनी भी उतनी प्रबल थी। आखिर जो भाग्य में होना है वह होकर रहता है।

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संत ही है जो टाल सकता है कि आज का दिन इसको न देखना पड़े तो टालता रहा। आज पुन: आए हैं लेकिन  देवर्षि नारद को साथ लेकर आए हैं। राजा बहुत परेशान थे।

देवर्षि नारद राजा को समझाते हैं कि तेरा पुत्र जहां चला गया है वहां से लौटकर नहीं आ सकता। शोक रहित हो जा। तेरे शोक करने से तेरी सुनवाई नहीं होने वाली। बहुत समझा रहे हैं राजा को लेकिन राजा फूट-फूट कर रो रहा है। ऐसे समय में एक ही शिकायत होती है कि यदि लेना ही था तो दिया ही क्यों? यह तो आदमी भूल जाता है कि किस प्रकार से आदमी मांग कर लेता है, मन्नतें मांग कर इधर-उधर जाकर लिया है पुत्र लेकिन आज उन्हें ही उलाहना दे रहा है।

देवर्षि  नारद राजा को समझाते हैं, ‘‘पुत्र चार प्रकार के होते हैं। पिछले जन्म का बैरी जो अपना बैर चुकाने के लिए पैदा होता है, उसे शत्रु पुत्र कहा जाता है। पिछले जन्म का ऋणदाता अपना ऋण वसूल करने आता है। हिसाब-किताब पूरा होता है और जीवन भर का दुख देकर चला जाता है। तीसरी तरह का पुत्र उदासीन पुत्र होता है जो विवाह से पहले मां-बाप का, विवाह होते ही मां-बाप से अलग हो जाता है कि अब मेरी और आपकी निभ नहीं सकती।’’

चौथे प्रकार के पुत्र सेवक पुत्र होते हैं। माता-पिता में परमात्मा को देखने वाले सेवक पुत्र। उनके लिए माता-पिता की सेवा ही परमात्मा की सेवा होती है। माता-पिता की सेवा हर किसी की किस्मत में नहीं है। कोई-कोई भाग्यवान है जिसको यह सेवा मिलती है उसकी साधना की यात्रा बहुत तेज गति से आगे चलती है। वह घर बैठे भगवान की उपासना करता है।’’

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नारद बोले, ‘‘राजन! तेरा पुत्र शत्रु पुत्र था। शत्रुता निभाने आया था, चला गया। यह महर्षि अंगिरा इसी को टाल रहे थे पर तू न माना।’’

समझाने के बावजूद राजा रोए जा रहा है। मानो शोक से बाहर नहीं निकल पा रहा है।

देवर्षि नारद कहते हैं, ‘‘राजन, मैं तुझे तेरे पुत्र के दर्शन करवाता हूं।’’

सारे विधि-विधान तोड़कर  देवर्षि उसके मरे हुए पुत्र को लेकर आए हैं जो शुभ्रत श्वेत कपड़ों में लिपटा हुआ है। राजा के सामने आकर खड़ा हो गया। देवॢष कहते हैं, ‘‘क्या देख रहे हो? तुम्हारे पिता हैं प्रणाम करो।’’

पुत्र/आत्मा पहचानने से इंकार कर रही है, ‘‘कौन पिता? किसका पिता? देवॢष क्या कह रहे हो आप? न जाने मेरे कितने जन्म हो चुके हैं। कितने पिता! मैं नहीं जानता यह कौन है, किस-किस को पहचानूं? मैं इस समय विशुद्ध आत्मा हूं।’’

‘‘मेरा मां-बाप कोई नहीं। मेरा मां-बाप परमात्मा है तो शरीर के संबंध टूट गए जितनी लाख योनियां आदमी भोग चुका है उतने ही मां-बाप। कभी चिडिय़ा में मां-बाप, कभी कौआ में मां-बाप, कभी हिरण में, कभी पेड़-पौधे इत्यादि-इत्यादि।’’

नारद बोले, ‘‘सुन लिया राजन! यह अपने आप बोल रहा है। जिसके लिए तुम बिलख रहे हो वह तुम्हें पहचानने से इंकार कर रहा है।’’

समझाया पुत्र मोह केवल मन का भ्रम है। सत्य सनातन तो केवल परमात्मा हैं। संत-महात्मा कहते हैं जो माता-पिता अपने पुत्र को, अपनी पुत्री को इस जन्म में सुसंस्कारी नहीं बनाते, उन्हें मानव धर्म का महत्व नहीं समझाते, उनको संसारी बनाकर उनसे शत्रु समान व्यवहार करते हैं तो अगले जन्म में उनके बच्चे शत्रु और बैरी पुत्र के रूप में उनके घर पैदा होते हैं।

अत: संतान का सुख भी अपने ही कर्मों के अनुसार मिलता है। जबरदस्ती, मन्नत इत्यादि से नहीं और मिल भी जाए कब तक रहे, इसका कोई भरोसा नहीं।

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