Edited By ,Updated: 24 Mar, 2017 10:16 AM
राजमार्ग पर एक घना वृक्ष था जिसकी शीतल छाया में बैठकर सभी राहगीर आराम करते थे। गपशप करते हुए अपनी थकान मिटाते थे। भीषण गर्मी पड़ रही थी।
राजमार्ग पर एक घना वृक्ष था जिसकी शीतल छाया में बैठकर सभी राहगीर आराम करते थे। गपशप करते हुए अपनी थकान मिटाते थे। भीषण गर्मी पड़ रही थी। धरती-आकाश दोनों तप रहे थे। एक पागल उस पेड़ के नीचे आराम कर रहा था और रह-रह कर अपनी मानसिक विक्षिप्तता के कारण जोर-जोर से हंस भी रहा था। उसी समय एक आधुनिक वस्त्रों से सुसज्जित व्यक्ति उस वृक्ष के नीचे आया और उसने पागल से कहा, ‘‘यहां से हट, मुझे आराम करना है।’’
पागल ने कहा, ‘‘क्यों हटूं?’’
तब उस व्यक्ति ने कहा, ‘‘तू जानता नहीं, मैं राजकीय अधिकारी हूं और यहां विश्राम करने का पहला हक मेरा है।’’
पागल हंसा और दूसरी ओर चला गया। वह अधिकारी कुछ पल ही आराम कर पाया था कि एक संन्यासी वहां आए। गर्मी से उनका भी हाल बेहाल था। उन्होंने पेड़ के नीचे बैठे उस अधिकारी से कहा, ‘‘थोड़ा-सा उधर सरक जाइए, मैं भी वृक्ष की शीतलता ले लूं और अपनी थकान मिटा लूं।’’
अधिकारी ने अपनी ऐंठ में कहा, ‘‘क्यों सरकूं? मुझे आप जानते नहीं, मैं राजकीय अधिकारी हूं। मैं राजमहल में एक महत्वपूर्ण पद पर कार्यरत हूं। मैं नहीं सरकूंगा।’’
संन्यासी बोले, ‘‘तुम अगर राजकीय अधिकारी हो तो मैं भी राजगुरु हूं इसलिए छाया में बैठने का अधिकारी मैं भी हूं। दोनों में विवाद शुरू हो गया। दोनों की वाणी में कटुता आ गई। उसी समय वह पागल आया और उसने जोर-जोर से हंसते हुए कहा, ‘‘पागलों की तरह लड़ क्यों रहे हो? लडऩे की अपेक्षा तो मिल-बांट कर छाया का उपयोग कर लो। जो काम लडऩे से नहीं होता वह प्रेम से हो जाता है। दोनों की ही थकान दूर हो जाएगी।’’
इतना कह कर वह पागल जोर से ठहाका लगाते हुए वहां से चला गया लेकिन वह राजपुरुष और राजगुरु दोनों सोच में पड़ गए कि पागल वह है या हम दोनों?