धार्मिक ग्रंथों में वर्णित है ये महादान, करने से होती है पुण्य प्राप्ति

Edited By Punjab Kesari,Updated: 21 Feb, 2018 01:26 PM

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दान का शाब्दिक अर्थ है- ''देने की क्रिया''। सभी धर्मों में सुपात्र को दान देना परम् कर्तव्य माना गया है। जब हम दूसरों की खुशी के लिए अपनी किसी खुशी का त्याग करते हैं और एेसा करने पर हमारे मन को शांति मिलती है तो इसे दान कहते हैं।

दान का शाब्दिक अर्थ है- 'देने की क्रिया'। सभी धर्मों में सुपात्र को दान देना परम् कर्तव्य माना गया है। जब हम दूसरों की खुशी के लिए अपनी किसी खुशी का त्याग करते हैं और एेसा करने पर हमारे मन को शांति मिलती है तो इसे दान कहते हैं। हिंदू धर्म में दान की बहुत महिमा बताई गई है। आधुनिक संदर्भों में दान का अर्थ किसी जरूरतमंद को सहायता के रूप में कुछ देना माना गया है।


दान करते वक्त यह बात ध्यान में रखनी बहुत आवश्यक मानी जाती है कि दान में दी हुई वस्तु के बदले में किसी प्रकार का विनिमय नहीं होना चाहिए। भारत में दान को बहुत महत्व दिया जाता है। कई मान्यताओं के अनुसार अपनी आमदनी का एक अंश दान के रूप में खर्च करना अनिवार्य माना है। हमारे पूर्वज मनीषियों ने दान का धर्म के साथ अटूट संबंध जोड़कर उसे आवश्यक धर्म-कर्तव्य घोषित किया था। दान की बड़ी-बड़ी आदर्श गाथाएं हमारे साहित्य में भरी पड़ी हैं और आज भी हम किसी न किसी रूप में दान की परपंरा को निभाते हैं। गरीब से लेकर अमीर, सभी अपनी-अपनी स्थिति के अनुसार कुछ न कुछ दान करते ही हैं। मानो दान देना हमारे स्वभाव का एक अंग ही बन गया हो।


धर्म के अनुसार कुछ दानों को विशेष बताया गया है। जैसे कि विद्यादान, अभयदान, कन्यादान, नामदान आदि। परंतु कुछ दानों को महादान कहा जाता है। जिनको करने से पुण्य की प्राप्ति होती है। मान्यताओं के अनुसार निम्न दिए गए दानों का महादान कहा जाता है।

 

महादान
तुलादान, गौदान, कामधेनु दान, विश्वदान, हिरण्याश्व, हिरण्याश्वरथ, धरादान, पचालांगलक, हेमस्तिरथ, विश्वचक्र, रत्नदान, सात सागर, महाभूत धठ, महाकल्पलता, ब्रह्मांड, हिरण्यगर्भ।


अग्रि पुराण में, घोड़े, हाथी, तिल, सेवक, सेविका, रथ, भूमि, भवन, वधू, कपिला गाय, स्वर्ण आदि को मिलाकर महादान कहा गया है।  


मत्स्यपुराण में कहा गया है कि भरत, महाराज पृथु, भक्त प्रह्लाद, अंबरीश, भार्गव, कतिनीर्य, वासुदेव, अर्जुन, राम आदि ने भी अपने युग में ये महादान किए थे।
 

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