Dussehra Special: यहां रावण नहीं जलाई जाती है पूरी लंका!

Edited By Jyoti,Updated: 15 Oct, 2021 01:04 PM

dussehra tradition in kullu

आज के दिन प्रत्येक वर्ष आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरे का पर्व मनाया जाता है। धार्मिक किंवदंतियों के अनुसार इस पर्व को विजयादशमी के नाम से भी जाना जाता है। शास्त्रों व

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आज के दिन प्रत्येक वर्ष आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को दशहरे का पर्व मनाया जाता है। धार्मिक किंवदंतियों के अनुसार इस पर्व को विजयादशमी के नाम से भी जाना जाता है। शास्त्रों व ग्रंथों में वर्णन मिलता है दशहरे का त्यौहार असत्य पर सत्य की जीत का प्रतीक माना जाता है। श्री राम ने सीता माता को रावण के चगुंल से मुक्त करवाया था और रावण का वध कर दुनिया में सत्य की जीत का परचम लहराया था। इसी उपलक्ष्य में देश भर में लगभग हर कोने में इस दिन रावण का पुतला बनाकर जलाया जाता है, और हमेशा बुराई पर अच्छाई की जीत होती है इस बात को याद करवाया जाता है। लेकिन क्या आप जानते हैं देश में एक ऐसा भी स्थान है जहां रावण का दहन नहीं किया जाता। जी हां, आपने बिल्कुल सही पढ़ा है। 

बताया जाता है कुल्लु की हसीन वादियों में मनाया जाने वाला दशहरा अपनी एक अनोखी परंपरा के चलते न केवल देश में बल्कि कई अन्य देशों में भी प्रसिद्ध है। दरअसल कुल्लू में मनाए जाने वाले दशहरे के दौरान रावण को नहीं जलाया जाता। बताया जाता है ये अनोखी परंपरा कुल्लू में 17वीं शताब्दी से चली आ रही है। बात उस समय की है जब कुल्लू में राजाओं का शासन चलता था। लोक मान्यताओं के अनुसार 17वीं शताब्दी में कुल्लू के राजा जगत सिंह के हाथों एक ब्राह्मण की मौत हो गई थी। जिसके बाद राजा जगत ने प्रायश्चित करने के लिए अपने सिंहासन का त्याग कर दिया और उस पर भगवान रघुनाथ की मूर्ति को विराजमान कर दिया। इसके साथ ही राजा जगत सिंह ने कसम ली कि अब से इस कुल्लू साम्राज्य पर केवल भगवान रघुनाथ के वंशज ही राज करेंगे। प्रचलित पौराणिक कथाओं के अनुसार तो राजा जगत, प्रभु राम की एक मूर्ति को लाने के लिए उनके जन्मस्थान अयोध्या पहुंचे। कुछ दिन बाद वापस आने पर राजा जगत ने प्रभु राम की उस मूर्ती को अपने सिंहासन पर स्थापित कर दिया। लोक मत है कि दशहरा के दौरान प्रभु रघुनाथ स्वर्ग से और भी देवताओं को यहां बुलाते हैं। 


कुल्लू में दशहरे के दौरान अश्विन महीने के पहले 15 दिनों में राजा सभी देवी-देवताओं को धौलपुर घाटी में रघुनाथ जी यानि श्री राम के सम्मान में यज्ञ करने के लिए न्योता देते हैं। इस दौरान यहां 100 से ज्यादा देवी-देवताओं की रंग-बिरंगी सजी हुई पालकियों में बैठाया जाता है। उत्सव के पहले दिन दशहरे की देवी ‘मनाली की मां हिडिंबा’ कुल्लू आती हैं, जिसके बाद ही राजघराने के सभी सदस्यों की भीड़ उनका आशीर्वाद लेने के लिए पहुंचती है। देवी-देवताओं को रथों में बैठाकर एक जगह से दूसरी जगह लेकर जाते हैं। बताया जाता है ये रथ यात्रा 6 दिनों तक चलती है इन 6 दिनों के बाद सभी रथों को इकट्ठा किया जाता है। ऐसी मान्यता है कि सभी देवी-देवता इस दिन एक दूसरे से मिलते हैं और भगवान के इस मिलन को 'मोहल्ला' के नाम से जाना जाता है। 

इसके अलावा इस दशहरे की खास बात ये भी है कि कुल्लू दशहरे के उत्सव में 5 बलि दी जाती है। मान्यता है कि दशहरे पर जीव की मृत्यु देने से क्रोध, मोझ, लोभ और अहंकार के दोष खत्म हो जाते हैं। इस उत्सव के आखिरी दिन लोग खूब सारी लकड़ियों को एकत्रित करके उसे जला देते हैं। इस मान्यता के पीछे लोगों का मानना है कि वो ऐसा करके रावण के घर यानि की लंका को जलाते हैं। फिर इस रथ को दोबारा उसी जगह ले जाया जाता है और रघुनाथ जो को वापिस उस मंदिर में स्थापित कर दिया जाता है।  
 

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