गंगा दशहरा 2020:  इस स्तोत्र से मिलेगा गंगा स्नान का पुण्य

Edited By Jyoti,Updated: 30 May, 2020 04:04 PM

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01 जून को गंगा दशहरा का पर्व  मनाया जाएगा। हिंदू धर्म के तमान त्यौहारों आदि की तरह इस पर्व को भी बहुत खास माना जाता है।

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01 जून को गंगा दशहरा का पर्व  मनाया जाएगा। हिंदू धर्म के तमान त्यौहारों आदि की तरह इस पर्व को भी बहुत खास माना जाता है। इस दौरान गंगा स्नान व दान आदि जैसे कार्य करने से एक तरफ़ जहां पापों से मुक्ति मिलती है तो वहीं दूसरी ओर इससे पुण्य की प्राप्ति होती है। मगर कुछ लोग इन दोनों कामों को कर पाने में सक्षम नहीं होते। तो ऐसे न क्या करना चाहिए। ये सवाल हर किसी के मन में आता है। तो बता दें आपके इस सवाल का जवाब आपको यहीं मिलेगा। जी हां, धार्मिक शास्त्रों में कुछ ऐसा बताया गया है, जिसे करने से आपको भी पुण्य की प्राप्ति हो सकती है। जैसे कि आप जानते हैं कि कोरोना संकट से इस समय पूरा देश ही नहीं बल्कि संपूर्ण विश्व लड़ रहा है। जिस दौरान सरकार की तरफ़ से ये कोशिश जारी है कि लोग एक दूसरे के संपर्क में कम से कम आए। यही वजह है कि कहा जा रहा है इस गंगा स्नान हो पाना असंभव लग रहा है। ऐसे में आप घर बैठकर इसका पुण्य प्राप्त कर सकते हैं।
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दरअसल इसके लिए आपको ज्यादा कुछ नहीं करना, केवल सुबह स्नान के समय अपने पानी में गंगा जल मिलाना होना है और फिर स्नान करना है। साथ ही साथ स्नान करते समय या पूजन के दौरान आगे दिए स्तोत्र का वाचन करें। इससे आपके समस्त पाप धुल जाएंगे। आइए जानते हैं कौन सा है ये स्तोत्र-

मां गंगा स्तोत्रम्
देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे
त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमले
मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥१॥

भागीरथि सुखदायिनि मातस्तव
जलमहिमा निगमे ख्यातः ।
नाहं जाने तव महिमानं
पाहि कृपामयि मामज्ञानम् ॥ २॥

हरिपदपाद्यतरङ्गिणि गङ्गे
हिमविधुमुक्ताधवलतरङ्गे ।
दूरीकुरु मम दुष्कृतिभारं
कुरु कृपया भवसागरपारम् ॥ ३॥

तव जलममलं येन निपीतं,
परमपदं खलु तेन गृहीतम् ।
मातर्गङ्गे त्वयि यो भक्तः
किल तं द्रष्टुं न यमः शक्तः ॥ ४॥

पतितोद्धारिणि जाह्नवि गङ्गे
खण्डितगिरिवरमण्डितभङ्गे ।
भीष्मजननि हे मुनिवरकन्ये,
पतितनिवारिणि त्रिभुवनधन्ये ॥ ५॥

कल्पलतामिव फलदां लोके,
प्रणमति यस्त्वां न पतति शोके ।
पारावारविहारिणि गङ्गे
विमुखयुवतिकृततरलापाङ्गे ॥ ६॥

तव चेन्मातः स्रोतःस्नातः
पुनरपि जठरे सोऽपि न जातः ।
नरकनिवारिणि जाह्नवि गङ्गे
कलुषविनाशिनि महिमोत्तुङ्गे ॥ ७॥

पुनरसदङ्गे पुण्यतरङ्गे
जय जय जाह्नवि करुणापाङ्गे ।
इन्द्रमुकुटमणिराजितचरणे
सुखदे शुभदे भृत्यशरण्ये ॥ ८॥

रोगं शोकं तापं पापं
हर मे भगवति कुमतिकलापम्।
त्रिभुवनसारे वसुधाहारे
त्वमसि गतिर्मम खलु संसारे॥ ९॥
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अलकानन्दे परमानन्दे
कुरु करुणामयि कातरवन्द्ये ।
तव तटनिकटे यस्य निवासः
खलु वैकुण्ठे तस्य निवासः ॥१०॥

वरमिह नीरे कमठो मीनः
किं वा तीरे शरटः क्षीणः ।
अथवा श्वपचो मलिनो दीनस्तव
न हि दूरे नृपतिकुलीनः॥ ११॥

भो भुवनेश्वरि पुण्ये धन्ये
देवि द्रवमयि मुनिवरकन्ये ।
गङ्गास्तवमिमममलं नित्यं
पठति नरो यः स जयति सत्यम् ॥ १२॥

येषां हृदये गङ्गाभक्तिस्तेषां
भवति सदा सुखमुक्तिः ।
मधुराकान्तापज्झटिकाभिः
परमानन्दकलितललिताभिः ॥ १३॥

गङ्गास्तोत्रमिदं भवसारं
वाञ्छितफलदं विमलं सारम् ।
शङ्करसेवकशङ्कररचितं पठति
सुखी स्तव इति च समाप्तः ॥ १४॥

देवि सुरेश्वरि भगवति गङ्गे
त्रिभुवनतारिणि तरलतरङ्गे ।
शङ्करमौलिविहारिणि विमले
मम मतिरास्तां तव पदकमले ॥

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