Edited By Niyati Bhandari,Updated: 16 Jun, 2018 01:45 PM
महर्षि रमण से कुछ भक्तों ने पूछा, ‘‘क्या हमें भगवान के दर्शन हो सकते हैं? ‘‘हां, क्यों नहीं हो सकते? परंतु भगवान को देखने के लिए उन्हें पहचानने वाली आंखें चाहिए होती हैं,’’ महर्षि रमण ने भक्तों को बताया।
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महर्षि रमण से कुछ भक्तों ने पूछा, ‘‘क्या हमें भगवान के दर्शन हो सकते हैं? ‘‘हां, क्यों नहीं हो सकते? परंतु भगवान को देखने के लिए उन्हें पहचानने वाली आंखें चाहिए होती हैं,’’ महर्षि रमण ने भक्तों को बताया।
‘‘एक सप्ताह तक चलने वाले समारोह के अंतिम दिन भगवान आएंगे, उन्हें पहचान कर, उनके दर्शन कर तुम सब स्वयं को धन्य कर सकते हो,’’ महर्षि ने कहा।
भगवान के स्वयं आने की बात सुनकर भक्तों ने मंदिर को सजाया, अत्यंत सुन्दर ढंग से भगवान का शृंगार किया तथा संकीर्तन शुरू कर दिया। महर्षि रमण भी समय-समय पर संकीर्तन में जाकर बैठ जाते। सातवें दिन भंडारा करने का कार्यक्रम था। भगवान के भोग के लिए तरह-तरह के व्यंजन बनाए गए थे। भगवान को भोग लगाने के बाद उन व्यंजनों का प्रसाद स्वरूप वितरण शुरू हुआ।
मंदिर के ही सामने एक पेड़ था जिसके नीचे मैले कपड़े पहने एक कोढ़ी खड़ा हुआ था। वह एक टक देख रहा था और इस आशा में था कि शायद उसे भी कोई प्रसाद देने आए। एक व्यक्ति दया करके साग-पूरी से भरा एक दोना उसके लिए ले जाने लगा तो एक ब्राह्मण ने उसे लताड़ते हुए कहा, ‘‘यह प्रसाद भक्तजनों के लिए है, किसी कंगाल कोढ़ी के लिए नहीं बनाया गया।’’
ब्राह्मण की लताड़ सुनकर वह साग-पूरी से भरा दोना वापस ले गया। महर्षि रमण मंदिर के प्रांगण में बैठे यह दृश्य देख रहे थे।
भंडारा सम्पन्न होने पर भक्तों ने महर्षि से पूछा, ‘‘आज 7वां दिन है किन्तु भगवान तो नहीं आए।’’
‘‘मंदिर के बाहर जो कोढ़ी खड़ा था वह ही तो भगवान थे। तुम्हारे चर्म चक्षुओं ने उन्हें कहां पहचाना? भंडारे के प्रसाद को बांटते समय भी तुम्हें इंसानों में अंतर नजर आता है,’’ महर्षि ने कहा। इतना सुनना था कि भगवान के दर्शनों के इच्छुक लोगों का मुंह उतर गया।
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