ऐसे Character वाले लोगों की भगवान खुद रक्षा करते हैं

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 26 Aug, 2019 07:44 AM

god himself protects those with such character

मनुष्य की पहचान उसके स्वभाव से होती है। किसी मनुष्य के आचरण में कई बार जो हमें दिखाई देता है, वह वास्तविकता नहीं होती। दिखावट के तौर पर किया गया आचरण स्वभाव नहीं होता। जैसे असत्य बोलना युधिष्ठिर के स्वभाव में नहीं था।

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मनुष्य की पहचान उसके स्वभाव से होती है। किसी मनुष्य के आचरण में कई बार जो हमें दिखाई देता है, वह वास्तविकता नहीं होती। दिखावट के तौर पर किया गया आचरण स्वभाव नहीं होता। जैसे असत्य बोलना युधिष्ठिर के स्वभाव में नहीं था। जब उन्हें महाभारत के युद्ध में अश्वत्थामा नामक हाथी के मारे जाने पर, उन्हें इसकी सूचना द्रोणाचार्य को देने के लिए कहा गया, तो उन्हें इस असत्य के बोलने पर अत्यंत कष्ट हुआ। चूंकि अश्वत्थामा द्रोण पुत्र भी था। इसका मंतव्य यही था कि द्रोणाचार्य का मनोबल टूट जाए और वह हथियार डाल दें। चूंकि यह सब धर्म रक्षार्थ था, इसलिए युधिष्ठिर के यश में कभी कुछ गतल नहीं कहा गया। दूसरी तरफ दुर्योधन स्वभाव से कुटिल था। गुरुजनों का अपमान करना उसका नित्य का स्वभाव था। एक समय जब ऋषि दुर्वासा उसके राजमहल में आए तो उसने कुटिल आतिथ्य सत्कार से उनको प्रसन्न किया और उनसे यह वर मांगा कि वे वन में रह रहे पांडवों के पास भी आतिथ्य स्वीकार करने अवश्य जाएं।

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उसने यह शर्त भी रखी कि जब द्रौपदी अन्न ग्रहण कर ले, तब ही आप उनके पास भोजन करने जाएं। दुर्वासा ऋषि अपने दस हजार शिष्यों के साथ वनवास काट रहे पांडवों के पास पहुंचे। उन्होंने द्रौपदी से भोजन तैयार करने के लिए कहा। द्रौपदी, पांडवों के भोजन के पश्चात भोजन कर चुकी थीं।

युधिष्ठिर को भगवान सूर्य से एक अक्षय पात्र प्राप्त हुआ था जिसमें यह वरदान था कि यह पात्र कभी भी भोजन से रिक्त नहीं होगा लेकिन द्रौपदी के भोजन करने के पश्चात यह अक्षय पात्र अन्न प्रदान नहीं करेगा। यही दुर्योधन की कुटिल चाल थी। वह चाहता था कि ऋषि दुर्वासा भोजन न मिलने पर क्रोधवश पांडवों को श्राप दे दें। अर्थात उसने जो ऋषि दुर्वासा की आतिथ्य सेवा की, वह स्वभाववश नहीं अपितु स्वार्थवश की थी। लेकिन भक्त रक्षक भगवान श्री कृष्ण ने द्रौपदी के आह्वान पर वहां पहुंच कर अक्षय पात्र में शेष रह गए केवल एक कण चावल के दाने को ग्रहण कर संपूर्ण सृष्टि को तृप्त किया। इससे ऋषि दुर्वासा भी तृप्त हो गए और पुन: द्रौपदी के आश्रम में भोजन करने वापस नहीं आए। इस प्रकार भक्त वत्सल भगवान ने पांडवों के आतिथ्य व्रत की रक्षा की।

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जब रावण को यह ज्ञात हुआ कि उसके भाइयों खर एवं दूषण का वध हो गया है, तो वह रात भर सोचता रहा कि खर और दूषण उसके समान बलशाली थे। उनका वध नारायण के अतिरिक्त कोई दूसरा नहीं कर सकता। उसने मन में विचार किया कि उसके लिए अपने तमोगुणी स्वभाव को परिवर्तित करना तो असंभव है, अगर खर-दूषण का वध करने वाले प्रभु श्री राम स्वयं श्रीमन नारायण हैं, तो वह भी उनके हाथों मर कर मुक्ति प्राप्त कर लेगा।

श्रेष्ठता के अभिमान का अभाव, किसी भी प्राणी को किसी प्रकार भी न सताना, क्षमाभाव, मन-वाणी आदि की सरलता, बाहर-भीतर की शुद्धि, सत्यतापूर्वक शुद्ध व्यवहार, राग, द्वेष और कपट आदि विकारों का नाश कर अंत:करण की शुद्धि के लिए प्रयासरत रहने का स्वभाव समस्त प्राणीमात्र के प्रति कल्याण की भावना रखने वाला सात्विक व्यवहार है।

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स्वभाव में परिवर्तन तभी संभव होता है, जब मनुष्य अपने अंत:करण की शुद्धि का प्रयास करता है। अतिथि-सेवा एवं सत्यभाषण इत्यादि सदकर्मों का प्रभाव तभी ज्ञात होता है, जब हम शुद्ध अंत:करण से इन्हें व्यवहार में लाते हैं, यद्यपि आधुनिक समय में इन्हें पूर्णत: व्यवहार में लाना कठिन प्रतीत होता है, फिर भी यथायोग्य आचरण से हमें अपने स्वभाव में लोभ, स्वार्थ, ईर्ष्या इत्यादि विकारों को दूर कर अपने व्यक्तित्व में सुधार लाने का प्रयत्न करना चाहिए। यह विभीषण का शुद्ध आचरण वाला स्वभाव ही था कि हनुमान जी ने रावण की पूरी राक्षस नगरी में प्रभु भक्त विभीषण को पहचान लिया। स्वभाव में अगर सत्यता हो, तो वह सभी के लिए कल्याणप्रद होता है। 

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