Edited By Punjab Kesari,Updated: 18 Jul, 2017 10:03 AM
एक प्रसिद्ध संत ने समाज कल्याण के लिए एक मिशन शुरू किया। इस कार्य में उनके शिष्यों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और धन के लिए दानियों को खोजना शुरू कर दिया। एक दिन एक शिष्य
एक प्रसिद्ध संत ने समाज कल्याण के लिए एक मिशन शुरू किया। इस कार्य में उनके शिष्यों ने भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया और धन के लिए दानियों को खोजना शुरू कर दिया। एक दिन एक शिष्य कोलकाता के दानवीर सेठ को गुरुजी से मिलवाने ले गया। गुरुजी से मिलकर सेठ ने कहा, ‘‘हे महंत, मैं भी आपके समाज कल्याण में योगदान देना चाहता हूं। इस कार्य के लिए मैं भवन निर्माण करवाऊंगा। पर मेरी एक मंशा भी है। प्रत्येक कमरे के आगे मैं अपने परिजनों का नाम लिखवाऊं। इसके लिए मैं दान की राशि एवं नामों की सूची संग लाया हूं।’’
इतना कहकर सेठ ने धनराशि गुरुजी के सामने रख दी। इस पर गुरु शिष्य को डांटते हुए बोले, ‘‘यह तुम किसे साथ ले आए हो? यह महाशय तो यहां अपनों के नाम का कब्रिस्तान बनाना चाहते हैं।’’
फिर गुरुजी ने अपने शिष्यों को समझाया, ‘‘जब तक नि:स्वार्थ भाव से दान नहीं किया जाता, वह स्वीकार्य नहीं होता। किसी की मदद करके भूल जाना ही दान की पहचान होती है। जो इस कार्य को उपकार मानता है, असल में वह दान है ही नहीं।’’