Kundli Tv- भारत से लेकर अमेरिका तक है इनकी धूम, जानें कौन हैं ये महापुरुष

Edited By Niyati Bhandari,Updated: 18 Aug, 2018 09:45 AM

inspirational story of swami vivekananda

स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ। उनका जन्म का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वह अपने पुत्र नरेंद्र को भी अंग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्र...

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स्वामी विवेकानंद का जन्म 12 जनवरी 1863 को हुआ। उनका जन्म का नाम नरेंद्र नाथ दत्त था। उनके पिता श्री विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे। वह अपने पुत्र नरेंद्र को भी अंग्रेजी पढ़ाकर पाश्चात्य सभ्यता के ढंग पर ही चलाना चाहते थे। नरेंद्र की बुद्धि बचपन से बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की लालसा भी प्रबल थी। इसके लिए वह पहले ब्रह्मो समाज में गए किन्तु वहां उनके चित्त को संतोष नहीं हुआ। सन् 1884 में श्री विश्वनाथ दत्त की मृत्यु हो गई। घर का सारा बोझ नरेंद्र पर आ पड़ा। घर की दशा बहुत खराब थी। अत्यंत गरीबी में भी नरेंद्र बड़े अतिथि-सेवी थे। स्वयं भूखे रहकर अतिथि को भोजन कराते, स्वयं बाहर वर्षा में रात भर भीगते-ठिठुरते पड़े रहते और अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते। 

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स्वामी रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर नरेंद्र उनके पास पहले तो तर्क करने के विचार से ही गए थे किंतु परमहंस जी ने देखते ही पहचान लिया कि यह तो वही शिष्य है जिसका उन्हें कई दिनों से इंतजार है। परमहंस जी की कृपा से उन्हें आत्म-साक्षात्कार हुआ, फलस्वरूप नरेंद्र परमहंसजी के शिष्यों में प्रमुख हो गए। संन्यास लेने के बाद इनका नाम विवेकानंद हो गया।


स्वामी विवेकानन्द अपना जीवन अपने गुरु स्वामी रामकृष्ण परमहंस को समर्पित कर चुके थे। गुरुदेव के शरीर-त्याग के दिनों में अपने घर और कुटुम्ब की नाजुक हालत की परवाह किए बिना, स्वयं के भोजन की परवाह किए बिना गुरु सेवा में सतत् हाजिर रहे। गुरुदेव का शरीर अत्यंत रुग्ण हो गया था। कैंसर के कारण गले में से थूक, रक्त, कफ आदि निकलता था। इन सबकी सफाई वह खूब अच्छे से करते थे।

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गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके। गुरुदेव को वह समझ सके, स्वयं के अस्तित्व को गुरुदेव के स्वरूप में विलीन कर सके। सारे विश्व में भारत के अमूल्य आध्यात्मिक खजाने की महक फैला सके। उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में थी ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा।


25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र नाथ दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन् 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद हो रही थी। स्वामी विवेकानंद जी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में शामिल हुए। यूरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफैसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला और उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए।

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फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहां इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वह अमेरिका में रहे और वहां के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे।


‘अध्यात्म-विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा’ यह स्वामी विवेकानंद जी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित कीं। अनेक अमेरिका विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया।  4 जुलाई 1902 को उन्होंने देह त्याग किया। वह सदा खुद को गरीबों का सेवक कहते थे। भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया।
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